मौत की बानगी नहीं लगते।
तुम मगर जीस्त भी नहीं लगते।।
अजनबीयत में क्या हसीं थे तुम
अब मुझे अजनबी नहीं लगते।।
कैसे कह दें कि देवता हो तुम
जब मुझे आदमी नहीं लगते।।
अपने शासन में सच पे पाबंदी
तुम मुझे साहसी नहीं लगते।।
तुम मेरे वो तो हो न जाने क्यों
मुझको तुम अब वही नहीं लगते।।
हैफ़ इतना ज़हर बुझे हो तुम
शक्ल से बिदअती नहीं लगते।।
हूबहू शक्ल है कलाम वही
तुम मगर साहनी नहीं लगते।।
हैफ़/ हैरत, आश्चर्य
बिदअती/फ़सादी, झगड़ालू
सुरेश साहनी कानपुर
9451545132
Comments
Post a Comment