मुतमइन था मैं अपनी भूलों पर।

आँच आ ही गयी उसूलों पर।।


साथ देने तो खार ही आये

मैं भी माईल था जबकि फूलों पर।।


जज़्ब कालीन पर हुए ज़ख्मी

जीस्त बेहतर थी अपनी शूलों पर।।


कल तो तारीख़ भी भुला देगा

तब्सिरा व्यर्थ है फ़िज़ूलों पर।।


एक दिन शाख टूटनी तय थी

जीस्त थी ज़ेरो-बम के झूलों पर।।


भेड़िये मेमनों से हँस के मिले

बिक गये वे इन्हीं शुमूलों पर।।


मछलियां ही भटक गईं होंगी

है भरोसा बड़ा बगूलों पर।।


आके गिरदाब में पनाह मिली

आशियाना था जबकि कूलों पर।।


साहनी दार का मुसाफ़िर था

हिर्स में आ गया नुज़ूलों पर।।


मुतमइन/ सन्तुष्ट मुग्ध, खार/काँटे, माईल/आसक्त

जज़्ब/भावनाएँ, जीस्त/जीवन, तारीख़/इतिहास

तब्सिरा/चर्चा, फ़िज़ूल/बेकार ,शाख/डाल, ज़ेरो-बम/उतार-चढ़ाव, शुमूल/मिलन, सम्मेलन, गिरदाब/भंवर

कूल/किनारा, दार/सूली , हिर्स/लालच,  नुज़ूल/नीचे गिरना, सरकारी जमीन


सुरेश साहनी कानपुर

9451545132

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