कब तक याचक बन कर फिरता
कब तक मैं दुत्कारा जाता
साहित्यिक तथाकथित न्यासों-
में कब स्वीकारा जाता
जो लिखा उसे पढ़ लिया स्वयं
जो कहा उसे सुन लिया स्वयं
उस पर भी चिंतन मनन स्वयं
निष्कर्षों को गुन लिया स्वयं
अपनी मंज़िल भी स्वयं चुनी
अपना अभीष्ट तय किया स्वयं
उन सब को घोषित कर वरिष्ठ
ख़ुद को कनिष्ठ तय किया स्वयं
जब लगा बिखरना उचित मुझे
किरचे किरचे मैं ख़ुद बिखरा
जितना टूटा जुड़ कर उतना
तप कर कुछ ज्यादा ही निखरा
मैंने प्रशस्तियाँ नहीं गढ़ी
भूले भटगायन नहीं किया
मैं भले एकला चला किन्तु
मैंने दोहरापन नही जिया।।
सुरेश साहनी कानपुर
9451545132
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