क्षीण हैं पौरुष भुजायें मौन हैं
द्रौपदीयों पर सभायें मौन हैं
अग्निपुत्री नग्न होती जा रही
आस्थाएँ भग्न होती जा रही
कौन ढोये धर्म जब पीढ़ी नयी
वासना में मग्न होती जा रही
आज हतप्रभ हैं दिशायें मौन हैं
सत्य विचलित वेदनायें मौन हैं.......
सत्य हम संधान करते रह गये
योग साधन ध्यान करते रह गये
एकलव्यों की यही गुरु भक्ति है
बस अँगूठा दान करते रह गये
और गुरुओं की कृपायें मौन हैं......
Comments
Post a Comment