उम्र इक उलझनों को दी हमने।
ज़िन्दगी अनमनों को दी हमने।।
अपनी इज़्ज़त उछलनी यूँ तय थी
डोर ही बरहनों को दी हमने।।
गालियाँ दोस्तों में चलती हैं
पर दुआ दुश्मनों को दी हमने।।
भूल कर अपने ख़ुश्क होठों को
मय भी तर-दामनों को दी हमने।।
सोचता हूँ तो नफ़्स रुकती है
सांस किन धड़कनों को दी हमने।।
जानकर भी ख़मोश रहने की
कब सज़ा आइनों को दी हमने।।
क्यों तवज्जह सराय-फानी पर
साहनी मस्कनों को दी हमने।।
बरहनों/ नंगों, नग्न
ख़ुश्क/ सूखे
तरदामन/ भरे पेट, गुनाहगार
नफ़्स/ प्राण
मस्कन/ मकान
सुरेश साहनी कानपुर
9451545132
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