मौत जब ज़िंदगी का हासिल है।
जीस्त फिर क्यों मेरे मुक़ाबिल है।।
मेरी खुशियों का मैं ही क़ातिल हूं
या कोई और इसमें शामिल है।।
उफ ये मासूमियत सुभान अल्लाह
कौन बोलेगा हुस्न कातिल है।।
इब्तिदा है सफ़र की वो शायद
हम जिसे सोचते हैं मंज़िल है।।
तुम जिसे ले चुके सिवा उसके
कैसे कह दें कि और इक दिल है।।
सुरेश साहनी कानपुर
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