दम घुटता है सोने चाँदी की दीवारों में।
चलकर बैठें अपने जैसे ग़म के मारों में।।
ज़ेरे -ज़मीं तो आते जाते दुनिया दिखती है
कौन सदा रह पाया है ऊंची मीनारों में।।
काले काले अक्षर पन्ने घेरे रहते हैं
क्या काला सच भी छपता है अब अखबारों में।।
सामाजिकता छिन्न हुई है अंधी दौड़ों से
बच्चे घर कम ही आते हैं अब त्योहारों में।।
अब महंगाई सहना ही जनता की किस्मत है
मूल्य बहुत माने रखते थे तब किरदारों में।।
चंद्रयान ने तेरी सच्चाई दिखला ही दी
तू नाहक़ नखरे लेता था रहकर तारों में।।
मेरा चंदा तब भी तुमसे ज्यादा सुन्दर है
चाँद तुम्हारी गिनती होगी लाख हज़ारों में।।
सुरेश साहनी कानपुर
9451545132
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