शाम हुई चलने देते हैं
सूरज को ढलने देते हैं
ऐसा करते हैं आंखों में
कुछ सपने पलने देते हैं।।
क्या सूरज ही बनजारा हैं
हम भी तो बंजारे ठहरे
आज उठे जो इस दर से हम
कल जाने किस द्वारे ठहरे
संध्या को सुरमई नयन में
कुछ काजल मलने देते हैं.....
यह तो तय है रात बिता कर
कल सूरज फिर से निकलेगा
कब तक अँधियारा जागेगा
कब तक सूरज आँख मलेगा
चलो अमा में भी आशा का
एक दिया जलने देते हैं.......
सूर्य विवश है नियत समय पर
सुबह उगा है शाम ढला है
किन्तु नियति ने साथ समय के
मिलकर हमको खूब छला है
और नियति को कदम कदम पर
हम ही तो छलने देते हैं.......
सुरेश साहनी , कानपुर
9451545132
Comments
Post a Comment