मन मरुथल क्या अश्रु बहाता

सजल नयन कितना मुस्काते

बहरे श्रवण व्यथा सुनते कब

मूक अधर क्या पीर सुनाते........


इधर हृदय के अंतःपुर में

सूनेपन ने शोर मचाया

नीरवता थी मन की चाहत

पर तन को कोलाहल भाया


इन्द्रिय अनियंत्रित होने पर

मन की शान्ति कहाँ से पाते......


सीमित श्रवण हुये माया वश

अनहद नाद सुनें तो कैसे

दास वासनाओ का तन मन

सुख सन्मार्ग चुने तो कैसे


सहज सदा आनंदित रहते

मन से अगर विमुख ना जाते.......


सुरेश साहनी, कानपुर

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