ये न पूछो कैसे घर चलता रहा।

तुम गये फिर भी सफ़र चलता रहा।।


उम्रभर ग़म का कहर चलता रहा।

कारवाँ खुशियों का पर चलता रहा।।


जैसे चलता है दहर चलता रहा।

हर कोई अपनी डगर चलता रहा।।


ज़िन्दगी के ज़ेरोबम कब कम हुये

वक़्त से ज़ेरो-ज़बर चलता रहा।।


राब्ते तो बेतकल्लुफ ही रहे

पर तकल्लुफ उम्र भर चलता रहा।।


मरहला था ज़िन्दगी का हर ठहर

यों भटकना  दरबदर चलता रहा।।


मौत ने कब इत्तिला दी जीस्त को

साहनी भी बेख़बर चलता रहा।।


सुरेश साहनी कानपुर

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