लगे जा रहे ट्रेनों में स्पेशल डिब्बे।
कम होते जा रहे दिनोदिन जनरल डिब्बे।।
बरसातों में ट्रेन हो रही पानी पानी
गर्मी में होते हैं निरे निराजल डिब्बे।।
इतनी नफ़रत बाँट रही है आज सियासत
कहीं न चलवा दें ये सब कम्यूनल डिब्बे।।
डिब्बे कुछ बेपटरी भी होते रहते हैं
क्यों होने लगते है बेसुध बेकल डिब्बे।।
लगती रहती है ट्रेनों में आग निरन्तर
क्यों न ट्रेन के साथ लगा दें दमकल डिब्बे।।
कभी पिता सी गोद बिठा कर सैर कराते
चले ट्रेन तो लगते माँ के आँचल डिब्बे।।
क्या ऐसा होगा जब इंजन नहीं रहेंगे
क्या होगा जब रह जायेंगे केवल डिब्बे।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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