ऐ ख़ुदा मालिके ज़हां होकर।

क्यों भटकता है लामकां होकर।।


तू यहां से पनाह मांगेगा

एक दिन देख तो अयां होकर।।


हाथ खाली गया सिकंदर भी

क्या मिला रुस्तमे ज़मां होकर।।


उस अलॉ  ने भरम ही तोड़ दिया

जब मिला वह मुझे फलां होकर।।


चार दिन की चमक पे शैदा शय

एक दिन रहती है धुआं होकर।।


सिर्फ़ दो गज ज़मीन दे पाया

शख्सियत से वो आसमां होकर।।


मौत के साथ ही निकल भागी

बेवफा जीस्त मेरी जां होकर।।


सुरेश साहनी कानपुर

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