कहाँ धूप ने सुनी अर्ज़ियाँ

कहाँ छांव ने सुनी व्यथायें

बंधी फाइलों में दफ्तर की

गूँगी बन रह गयी कथायें।।


नारों जैसे चमकीले थे

किन्तु शिथिल पड़ गए कथानक

जिन आंखों के उजियारे थे

उनमें गड़ने लगे अचानक


क्या बदला जब लोकतंत्र में

वही नियन्ता वहीं प्रथायें।।


आशाओं की नयनज्योति में 

तम के बादल लगे घुमड़ने

शीश उठाये हाथ चले थे

दुनिया को मुठ्ठी में करने


कुछ बाधा बन गयी दूरियाँ

कुछ आड़े आ गयी जथायें।।


सुरेश साहनी कानपुर

9451545132

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है