उजाला कुछ घरों बंट रहा है।
चलो कुछ तो अँधेरा छँट रहा है।।
शराफ़त है अगर कमजर्फ होना
तो अब इस से मेरा मन हट रहा है।।
हुकूमत हर तरफ इब्लिस की है
भरोसा उस खुदा पर घट रहा है।।
जुबां जिसकी कटी सच बोलने में
ज़माना भी उसी से कट रहा है।।
बढ़े जाते हैं नफ़रत के कबीले
मुहब्बत का पसारा घट रहा है।।
जुबां शीरी कपट है जिसके दिल मे
ज़माना भी उसी से सट रहा है।।
साहनी सुरेश
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