अन्ततः एक दिन तो मरना था।

इसमें फिर क्या किसे अखरना था।।

 रंज-ए-शीशा-ए-दिल नहीं वाज़िब

यूँ भी इकदिन उसे बिखरना था।।

ज़ेरो-बम  ज़िन्दगी के  मानी हैं 

हुस्न ढलने तलक निखरना था।।

लाख जलवे उरूज़ पर पहुंचे

इक न इकदिन नशा उतरना था।।

अब तो मैयत क़याम करती है

आपको आज ही सँवरना था।।

सुरेशसाहनी, कानपुर

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