अंधेरों से उजाला चाहते हैं।
जो गिद्धों से निवाला चाहते हैं।।
तबाही ही मिली डिस्टेनसिंग से
मगर वो अब भी पाला चाहते हैं।।
बनाना चाहते हैं मुल्क़ ग्लोबल
हमारा घर निकाला चाहते हैं।।
हम उनके हैं यकीं करने की ज़िद में
वो इन पैरों में छाला चाहते हैं।।
वो कैसे मान लें नानी का घर है
कि बच्चे चार खाला चाहते हैं।।
कफ़न मुर्दों पे होना चाहिए था
जिसे सिस्टम पे डाला चाहते हैं।।
चमन अपना उजड़ जाने से पहले
परिंदे भी उठाला चाहते हैं।।
जहर देगा हमें मालुम है फिर भी
उन्हीं हाथों से हाला चाहते हैं।।
कि यूँ लूटा है उजले दामनों ने
हम अपना दिल भी काला चाहते हैं।।
सुरेश साहनी कानपुर
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