सनम के तर्जुमा होने लगे हैं।

ज़मीं पर भी ख़ुदा होने लगे हैं।।


तुम्हें चाहा ही क्यों था सोच कर अब

हमीं हम से ख़फ़ा होने लगे हैं।।


बड़ी हैरत है किस दुनिया मे हैं हम

यहाँ वादे वफ़ा होने लगे हैं।।


हमें इतना दबाया जा चुका है

कि अब हम भी ज़िया होने लगे हैं।।


वजू करते हैं हर दिन मयकदे में

सो हम भी पारसा होने लगे हैं।।


सुरेश साहनी कानपुर

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