ज़ीस्त कब तक गुजारते तन्हा।
किसलिए ख़ुद को मारते तन्हा।।
दिल उजड़ना है खुद में तन्हाई
ख़ुद को कितना उजाड़ते तन्हा।।
अश्क़ बनकर गिरे निगाहों से
जिस्म कैसे उतारते तन्हा।।
तुम मेरे पास थे चलो माना
फिर भी कब तक पुकारते तन्हा।।
आईना था तुम्हारी आँखों मे
खुद को कैसे संवारते तन्हा।।
मेरी नज़रे तुम्हारी आदी है
और किसको निहारते तन्हा।।
मय न होती तो साहनी ख़ुद को
ग़म से कैसे उबारते तन्हा।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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