तुमको हक़ था कि सताते मुझको।
कम से कम छोड़ न जाते मुझको।।
रात ख़्वाबीदा हुई थी माना
शोर कर देते जगाते मुझको।।
फिर सफ़र लाख कड़ा हो जाता
हर कदम साथ ही पाते मुझको।।
मान लेता कि मुझे भूल गए
तुम अगर याद न आते मुझको।।
रूठते तुम तो मनाता मै भी
यूँ ही कुछ तुम भी मनाते मुझको।।
हुस्न को तुम नहीं समझे शायद
इश्क़ होता तो बुलाते मुझको।।
जैसे दिल मे हो मेरे कुछ यूँ ही
अपने दिल मे भी बसाते मुझको ।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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