भाग कर घर से बगावत मत करो। है अगर ये ही मुहब्बत मत करो।। सिर्फ बचपन की शरारत ठीक थी बढ़ गये हो अब शरारत मत करो।।
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Showing posts from March, 2023
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स्वप्न फिसलती रेत सरीखे जीवन रिसती गागर। तुम को ढूंढ़ लिया अब ख़ुद को कहाँ तलाशें जाकर।। सब ने अपनी शर्तों पर की मुझसे नातेदारी जब तक मतलब रहा यार का उतने दिन थी यारी सब थे रिश्तों के व्यापारी सब दिल के सौदागर।। स्वप्न फिसलती रेत....... नेह रहा इस तन से उनका जब तक रही जवानी इसके आगे सम्बन्धों की केवल खींचा तानी दिल की दौलत बेहतर थी या दौलत का दिल बेहतर ।। स्वप्न फिसलती रेत सरीखे...... नैनों को समझाया लेकिन दिल ने बात न मानी उस ने भरमाया मेरे दिल ने भी की मनमानी फूल बिछे कब मिले प्यार में पाई पग पग ठोकर।। स्वप्न फिसलती रेत ...... सुरेश साहनी, कानपुर
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पगडंडी तक तो रहे अपनेपन के भाव। पक्की सड़कों ने किए दूर हृदय से गाँव।। शीतल छाया गाँव मे थी पुरखों के पास। एसी कूलर में मिले हैं जलते एहसास।। टीवी एसी फ्रीज क्लब बंगला मोटरकार। सब साधन आराम के फिर भी वे बीमार।। किचन मॉड्यूलर में नहीं मिलते वे एहसास। कम संसाधन में सही थे जो माँ के पास।। बढ़ जाती थी जिस तरह सहज भूख औ प्यास। फुँकनी चूल्हे के सिवा क्या था माँ के पास ।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरी परतें मेरा परदा नहीं है। जो दिखता है मेरा चेहरा नहीं है।। वो खुश है हँसता खेलता है हक़ीक़त में बशर ऐसा नहीं है।। कई क़िरदार शक्लें भी कई हैं यहाँ का आदमी क्या क्या नहीं है।। किसे सूली चढ़ाओगे यहां अब कोई मंसूर या ईसा नहीं है।। मुहब्बत क्या है बस बातें क़िताबी क़िताबें अब कोई पढ़ता नहीं है।। कभी इन्सान रहते थे यहाँ भी गया वो दौर अब ऐसा नहीं है।
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हम ख़ुद अपने शेर ज़ुबानी भूल गए। ऐसे ही हर बात पुरानी भूल गए।। मेरी ग़ज़लें वो भी गाया करते हैं जो जो मेरा मिसरा सानी भूल गए।। दुनिया अपने ग़म में जब मशरूफ़ मिली हम भी अपनी राम कहानी भूल गए।। तुम कितने नटखट थे तुमको याद नहीं हम भी बचपन की शैतानी भूल गए।। भूल गए तुमने मेरा दिल तोड़ा था छोड़ो हम भी वो नादानी भूल गए।। सुरेश साहनी,कानपुर
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नहीं किया जो कर जाना ही बेहतर है। मन दुनिया से भर जाना ही बेहतर है।। इन कोरोनाई रिश्तों में जीने से तनहा उम्र गुज़र जाना ही बेहतर है।।...... प्रेम कहाँ अब स्वार्थ कहो यह बेहतर है भ्रम ही आज यथार्थ कहो यह बेहतर है अपनी ख़ातिर जीयो खाओ मर जाओ और इसे परमार्थ कहो यह बेहतर है जब तक जीये शौक अधूरे जो छूटे उनका पूरा कर जाना ही बेहतर है।।....... बने बुलबुले सम्बन्धों के फुट गए कहो प्रेम के तार जुड़े क्यों टूट गए निश्चित सबने केवल अपने हित देखे हित साधा तो सधे नही तो रूठ गए मनके मन के एक नहीं तब माला क्या इनका सहज बिखर जाना ही बेहतर है।।....... सम्बन्धों का मकड़जाल ताना बाना है जाना पहचाना या फिर अनजाना प्राप्त छोड़ कर क्या कुछ पाने निकल पड़ें निकल पड़ें तो क्या खोना क्या पा जाना तृप्ति नहीं तो मुक्ति नहीं है इससे तो राग भोग में रम जाना ही बेहतर है।।.... सुरेश साहनी, कानपुर
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होठ हुए बोसीदनी अमलतास सी देह। स्वास फागुनी गन्ध को पाकर हुई विदेह।। पिय बिन ऋतु फागुन कहाँ पिय बिन क्या मधुमास। इधर विरह की वेदना उधर मदन के त्रास।। पीय स्वप्न में क्या मिले दग्ध हो उठी श्वास । गाल शर्म से हो गए दहके लाल पलाश।। देह तपी सूखे अधर नैन हुए रतनार। सांसें सारंगी हुई तन वीणा के तार।। आपन आपन बा खुशी आपन आपन क्लेश। जे दूनों से दूर बा उनकर नाम सुरेश।। देवर गए विदेश सब ननद आपने देश। यार मिले गांजा पिये कन्त हुए दरवेश।। मास चैत्र की गा रहे धुन खग मृग अलीवृंद। विरहिन तन से फूटती अब भी फागुन गंध।। सुरेश साहनी,कानपुर 9451545132
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चलो शिक़स्त को हम जीत मान लेते हैं। वो कौन हैं जो मेरा इम्तेहान लेते हैं।। पुराने शहर में हवेली नई कहाँ मुमकिन नए शहर में पुराना मकान लेते हैं।। नई फसल है नया खून है परिंदों में ये देखना है कहाँ से उड़ान लेते हैं।। यूँ तो हम कहने में रत्ती यकीं नहीं रखते वो कर गुजरते है जो दिल में ठान लेते हैं।। कमाल है कि कयामत हैं उनकी आँखों में नज़र झुका के वे कितनों की जान लेते हैं।। हमारे दोस्त भी गोया कोई नजूमी हैं कि दिल की बात निगाहों से जान लेते हैं।। आज जा रहे हैं चढ़ के चार कन्धों पर कहा किये थे कहाँ एहसान लेते हैं।।
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आ गए औक़ात पे अब ठीक है। क्या कहें इस बात पे अब ठीक है।। वो टिकट मिलते ही बोले क्या कहें मुल्क़ के हालात पे अब ठीक है।। जातिवादी कह रहे हैं वोट दें जात पे ना पात पे अब ठीक है।। आ गए हैं आज गोरखनाथ से वो मछिंदरनाथ पे अब ठीक है।। हम सियासी हैं मगर इतने नहीं जो कहें हर बात पे अब ठीक है।। सुरेश साहनी,कानपुर
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बात कोई बुरी ना लगे। रंग काँटा छुरी ना लगे।। ये भी होली की तासीर है कोई धुन बेसुरी ना लगे।। जाने किस रंग में रंग गयी फिर भी प्रेयसि बुरी ना लगे।। ऐसी ससुराल क्या जो हमें ज़िन्दगी की धुरी ना लगे।। डर रहा हूँ नशे में कहीं भैंस भी माधुरी ना लगे।। मान लो खुद को बूढ़ा अगर वो छुए सुरसुरी ना लगे।। कृष्ण ने मन छुआ ही नहीं तन अगर बांसुरी ना लगे।। कैसे मानें कि होली हुई जब कि मुख वानरी ना लगे।। यूँ रंगों प्रेम के रंग में भाव भी आसुरी ना लगे ।। सुरेश साहनी ,कानपुर ( रामकिशोर नाविक भैया से प्रेरित )
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मुझसे मुझको चुरा लिया तुमने। सच कहो क्या बना लिया तुमने।। हमने कुछ अश्क़ ही गिराए हैं आसमां सर उठा लिया तुमने।। तुम मेरी जान लेके घूमे हो क्या मेरा दिल भी पा लिया तुमने।। आदमियत भी भूल बैठे हो ख़ुद को कितना गिरा लिया तुमने।। चैन छीना मेरी खुशी ले ली क्या कहें और क्या लिया तुमने।। मेरी खुशियों को बेचने वाले दर्द को भी सज़ा लिया तुमने।। सुरेश साहनी, कानपुर
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इस शहर में मकान ले लेगा। उस शहर में दुकान ले लेगा।। और दो दिन रहा जो दुनिया में लग रहा है जहान ले लेगा।। कल ही उसने ज़मीन छोड़ी है आज क्या आसमान ले लेगा।। मुझमें जो शख़्स फड़फड़ाता है क्या कफ़स की भी जान ले लेगा। प्यार की आबरू तो रहने दे क्या ये झूठा गुमान ले लेगा।। ज़ीस्त तुझको सफ़र में ले आकर वक़्त हर सायबान ले लेगा।। मुझको मालुम है मौत से पहले मुझमें कोई उड़ान ले लेगा।। सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
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आज सचमुच मुझे आराम नहीं मिल पाया। ढूंढ़ कर थक गया पर काम नहीं मिल पाया।। और ज्यादा मैं थका हार के तब घर लौटा जब कि मेहनत का सही दाम नहीं मिल पाया।। वक़्त के अब्र शरारात पे आमादा थे चाँद आकर के सरेबाम नहीं मिल पाया।। वो तो हर वक़्त उजालों में घिरा रहता है तीरगी में भी किसी शाम नहीं मिल पाया।। वक़्त से एक शिकायत तो है अफसोस नहीं क्यों मेरे इश्क़ को अंजाम नहीं मिल पाया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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सरपरस्ती में हम नहीं रहते। उनकी बस्ती में हम नहीं रहते।। जब कभी उनको देख लेते हैं अपनी हस्ती में हम नहीं रहते।। जिसमें रिश्ते अदब न याद रहें ऐसी मस्ती में हम नहीं रहते।। दिल लुटाते तो लुटा देते हैं तंगदस्ती में हम नहीं रखते।। दिल के सौदे में हुज़्ज़तें कैसी महंगी सस्ती में हम नहीं रहते।। क्या गिरस्ती है हम फकीरों की इक गिरस्ती में हम नहीं रहते।। दिल मे रहना किसे पसंद नहीं दिल की बस्ती में हम नहीं रहते।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आशनाई है राब्ता कम है।। आपसे क्यों कहें कि क्या कम है।। उनसे शिकवे तो हैं गिला कम है। यूँ समझिए कि सिलसिला कम है।। आपने भी मुझे सुना कम है। और हमने भी कुछ कहा कम है।। यार हम आपको बिठा लेते पिछले पहिये में कुछ हवा कम है।। दिल की दूरी नज़र नहीं आती यूँ तो आपस का फासला कम है।। मर्ज यह ठीक क्यों नहीं होता या दवा कम है या दुआ कम है।। ऐतबारे- अदीब कर लीजै अपने क़िरदार से ज़रा कम है।।
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ये कैसी कैफियत ताबिश हुई है। सुना है वो भी कुछ दानिश हुई है।। मुझे लगता है वो आये हुए हैं मेरे तकिये में कुछ जुम्बिश हुयी है।। ख़ुशी है या तुम्हारे ग़म के आंसू हमारे शहर में बारिश हुई है।। ख़ुदा दो दिन की मोहलत और दे दे के उनसे मिलने की ख़्वाहिश हुयी है।। मेरे तुर्बत में खिड़की भी नहीं है मुझे लगता है कुछ साज़िश हुयी है।। सुरेश साहनी
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उम्र का बढ़ना सयानापन नहीं सच है सठियाना सयानापन नहीं।। बात चाहे कम करो यह ठीक है पर मुकरजाना सयानापन नहीं।। लोग समझे ईद है यूँ आपका बाम पे आना सयानापन नहीं।। दलबदल परिपक्वता की बात है निष्ठ हो जाना सयानापन नहीं।। कोई घोटाला करो स्वीकार है पर डकार आना सयानापन नहीं।। रोक लो अन्याय अब भी वक्त है सच को झुठलाना सयानापन नही।। छात्र युवक कल का हिंदुस्तान है इन को लठियाना सयानापन नहीं।।
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जीवन तरु मुरझाने मत दो कितनी भी आएं बाधायें आंधी हों या तेज हवाएँ आशा दीप बुझाने मत दो। प्रभु ने अवसर हमे दिया है जी भर भर कर हमे दिया है क्यों कृतज्ञ हम रहें किसी के खुद को कभी लजाने मत दो।। जीवन तरु..... एक फूल मुरझा सकता है यह जग बहुत बड़ी बगिया है भ्रमर बनो इस जग उपवन के समय निरर्थक जाने मत दो।।जीवन तरु.... एक तुम्हे देता है धोखा समझो इसे सुनहरा मौका कोई नया प्रतीक्षारत है ठुकरा दो ठुकराने मत दो।।जीवन तरु.... यह दुनिया रंगीन बहुत है वो ही नहीं हसीन बहुत है किसी एक की खातिर रो कर उसको ख़ुशी मनाने मत दो।।जीवन तरु....
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माल महल और बड़ी दुकानें इन सब के आगे पटरी है पटरी के आगे पदपथ हैं सब के आगे राजमार्ग हैं उसे सड़क भी कह सकते हैं वे सड़कें भी बँटी हुयी हैं ठेला गाड़ी से टमटम तक साइकिलों से एस यू वी तक बड़ी गाड़ियों के कुछ हक हैं वे फुटपाथों पर भी चढ़कर जल्दी आगे जा सकते हैं ऐसे में कुछ गति अवरोधक बनकर जो लेटे रहते हैं बड़े बड़े लोगों को हक़ है उनको दुःख से मुक्ति दिला दें ऐसे ऐसे जाने कितने रेहड़ और पटरियों वाले फेरी और खोमचे वाले मिलते जुलते कामों वाले थोड़े में खुश रहने वाले पूरे भारत में रहते हैं फुटपाथों पर ही जीते हैं फुटपाथों पर ही मरते हैं छत हो ना हो सब चलता है ये धरती को मान बिछौना ओढ़ आसमां सो जाते हैं आम जरूरत की चीजों को सजा पटरियों पर दुकान ये भारत को बेचा करते हैं शायद इनको पता नहीं है देश बेचना किनका हक़ है आख़िर इन छोटे लोगों को क्या हक़ है आगे बढ़ने का क्या हक़ है जिन्दा रहने का क्या हक़ है ये सपने देखें रोटी कपड़े और मकान के इनको इनकी सज़ा मिलेगी सज़ा मुक़र्रर कर दी जाये वरना कल ऐसे लोगों से भारी ख़तरा हो सकता है उन ऊँचे ऊँचे महलों को सेठों सरमायेदारों को सामंतों को राजाओं को आख़िर इनकी अनद...
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तुम गुलाब की पंखुड़ियों सी मैं पलाश के फूलों जैसा। साथ हमारा भी निभ जाता यदि होता मैं शूलों जैसा हमे सहारा दिया सड़क ने तनहाई ने पाला पोसा डिगते विश्वासों को फिर फिर आशाओं ने दिया भरोसा किस्मत थी कोरे कागज सी मन सतरंगी झूलों जैसा।। तुम गुलाब की... अब भी अमलताश झरते है अब भी गुलमोहर गिरते हैं जिन राहों से तुम आती थी अब भी टेसू पथ तकते हैं अब भी मैं निसदिन फिरता हूँ उन पर भटका-भूलों जैसा।। तुम गुलाब.... स्मृतियों में तुम राधा हो प्रीति हमारी श्याम सरीखी जीवन कानन फिर हरियाये यदि बरसो घनश्याम सरीखी मन मीरा की मस्ती पा ले तन रसखान रसूलों जैसा।। तुम गुलाब... सुरेशसाहनी, कानपुर
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कौन अपना ज़ुदा हुआ फिर से। ज़ख्म दिल का हरा हुआ फिर से।। इक ख़ुदा आज यूँ परेशां है कोई सजदानुमा हुआ फिर से।। जिस्मे-फ़ानी को छोड़ कर खुश हूँ मिल गया घर बना हुआ फिर से।। वो तो तफरीहख़्वाह था यूँ भी आज जो ग़ैर का हुआ फिर से।। आसमानों को आज हैरत है कद हमारा बड़ा हुआ फिर से।। उनको देखें कि मैकदे जायें मसअला ये खड़ा हुआ फिर से।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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फूल क्या सारा चमन था उसमें। एक मरमर सा बदन था उसमें।। इश्क़ वालों पे छलक पड़ता था हुस्न क्या ज़ाम-ए-कुहन था उसमें।। बेवफ़ाओं की तरह सोया है क्या मुहब्बत का रहन था उसमें।। था तो बिन्दास तबीयत लेकिन दर्द कोई तो दफ़न था उसमें।। दिल की हसरत को दबा कर रख दे यार इतना तो वज़न था उसमें।। जिसकी नफ़रत का मैं शैदाई था इश्क़ से मैं भी मगन था उसमें।। सुरेश साहनी,कानपुर
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राजनीति मत करो इसे होली ही रहने दो। दूर गंदगी करो रंग रोली ही रहने दो ।। ओवैसी तोगड़िया लगे दलाल विदेशी है ये कबीर की प्रेम भरी बोली ही रहने दो।। जीजा साली , देवर भाभी रस में डूबे हैं पर रिश्तों में सीमित हंसी ठिठोली रहने दो। रंग लगाओ प्रेम रंग में खुद भी रंग जाओ पर कोरी रिश्तों की चूनर चोली रहने दो।। होली क्या होलियारों की मस्तों की टोली है। क्या ये केवल राग रंग या हंसी ठिठोली है।। कबिरा सूर और मीरा ने इसे संवारा है या रसखान रहीम बोलते थे वह बोली है।।
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आदर्श पर अब ढोंग हावी हो गया है। दरअसल मौसम चुनावी हो गया है।। नब्ज़ पढ़ना भी जिसे आता नहीं वो भी लुकमान-ओ- मदावी हो गया है।। कल तलक जो था मुरीदे-सीकरी सुन रहा हूँ वो बहावी हो गया है।। जिसकी फितरत है दलाली वो भी अब मजलिसों में इंक़लाबी हो गया है।। मैंने सच बोला तो सब कहने लगे लग रहा है ये शराबी हो गया है।।
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आज सुबह कुछ जागरूक बुजुर्ग और कुछ भूतपूर्व युवा जोर शोर से निवर्तमान हालातों पर चर्चा में मशगूल थे। मैं भी उनसे कुछ दूरी पर बैठा था।चर्चा में एक साथ भारत पाकिस्तान हिन्दू मुसलमान अमेरिका चीन क्रिकेट फुटबॉल टीवी सीरियल, फ़िल्म आदि यानी लगभग मुल्क के हर मामले - मसअले उनकी चकल्लस में शामिल थे।उनमें एक बुज़ुर्ग ने बीजेपी की टिकट सूची में आडवाणी जी के नाम नहीं होने और उनके योगदान पर चर्चा करते हुए उनकी तारीफ करी। मुझे लगता है वे आडवाणी जी के प्रति संवेदनशील थे। दूसरे सज्जन ने प्रतिवाद किया, - " बौड़म हो का? अबे वो बाजपेई जी के पसङ्गा भी नहीं थे और ना होइहैं। वो बुड्ढा पद का लालची है। उसे तो खुदै हट जाना चाहिए।हाँ नहीं तो!!!
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चलो हम भूलने की एक कोशिश और और कर लें कहीं ऐसा न हो तुम याद आओ फिर तुम्हें हम प्यार कर बैठें और दिल का आईना जो आज तो चटखा हुआ है कल दरक कर टूट जाये तब तुम्हारी याद इन टुकड़ों में कुछ ज्यादा चुभेगी या सताएगी समझ लो तो अच्छा है तुम्हारे पास कोई दिल नहीं है तुम्हारे पास दौलत है कई दिल के बराबर तुम्हारे पास कितने दिल थे क्यों कर याद होगा....... सुरेश साहनी,कानपुर
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वो मुझे सच मे भुला देता क्या। इससे बढ़कर वो सज़ा देता क्या।। प्यार से वो रहा महरूम तो फिर सबको नफ़रत के सिवा देता क्या।। मैंने दामन तो बिछाया था मगर टूटता तारा भला देता क्या।। मुन्तज़िर होके जो पुरकैफ़ हुआ वस्ल भी उतना मज़ा देता क्या।। यूँ तेरी नफ़रतें तस्लीम करी आग को और हवा देता क्या।। दर्द औ ग़म दिये तन्हाई दी इश्क़ में और दवा देता क्या।। हमपे इतना भी सितम ठीक नहीं यार मैं ख़ुद को मिटा देता क्या।। सब भुलाने के जतन ठीक मगर दिल से तस्वीर हटा देता क्या।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर
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हम न ग़ालिब रहे न मीर हुए। हम न तालिब न तो नसीर हुए।। ताज वाले न थे न हो पाए और अज़मत से कब फ़कीर हुए।। बिन तेरे इक अजब सी गुरबत है हम भले शाह के अमीर हुए।। उन को दैरो-हरम से क्या मतलब जो तेरे इश्क़ के असीर हुए।। हम न राँझा हुए न मजनू तो तुम भी लैला बने न हीर हुए ।। साहसी कब हुआ कोई नादिर जितने रैदास या कबीर हुए।। जन्म से मृत्यु का ये हासिल है हम बिना प्राण के शरीर हुए।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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इस रहगुजर के बाद कोई रहगुज़र है क्या। बाद आखिरी सफ़र के भी कोई सफ़र है क्या।। जो कुछ भी हो रहा है मेरी जिंदगी के साथ मैं तो बता न पाऊंगा उसको ख़बर है क्या।। तुम कह रहे हो एक दिन तूफान आएगा खामोशियों में वाकई इतना असर है क्या।। क्यों कह रहा है आप मुझे जानते नहीं क्या सच में तिफ्ल इतना बड़ा नामवर है क्या।। उनकी गली में आके अदीब अजनबी लगा आमद से मेरी वो भी अभी बेखबर है क्या।। देते थे दर्दे दिल की दवा वह कहां गए अभी वहीं दुकान वहीं चारागर है क्या ।। गजलों में उसकी हुस्न नहीं ज़ौक भी नहीं ये साहनी कहीं से कोई सुखनवर है क्या।। सुरेश साहनी कानपुर ९४५१५४५१३२
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चलो कहीं विश्राम तलाशें। अजनबियों से भरे शहर में कोई परिचित नाम तलाशे।।..... तन मन जीवन सब के सब ही किस खयाल में भाग रहे हैं सांसों से लेकर धड़कन तक सभी ताल में भाग रहे हैं इस बिगड़े बेताल शहर में चलो कहीं आराम तलाशें।।...... मिथ्या दम्भ समेटे चेहरे निश्छल मुस्कानों से निर्धन मुर्दो जैसे चलते फिरते उत्सव लेकर एकाकीपन शमशानों से भरे शहर में कहाँ खुशी के ग्राम तलाशें।।..... सुरेश साहनी,अदीब, कानपुर 9451545132
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ज़ीस्त जब पेंचोखम बढ़ाती है। मुफ़लिसी हर वहम बढ़ाती है।। हैफ़ शीशा कहे है सागर से तिश्नगी ज़ेरोबम बढ़ाती है।। मौत आती है इस तरफ या फिर ज़िंदगानी कदम बढ़ाती है।। होश वाले कहाँ से समझेंगे बेखुदी और दम बढ़ाती है।। हुस्न परवाज़ को मचलता है आशिकी जब कदम बढ़ाती है।। ज़िन्दगी ताल पर नहीं रहती बेबसी जब भी सम बढ़ाती है।। बेख़ुदी में खलल न पड़ जाए वो सुराही के खम बढ़ाती है।। सुरेश साहनी,कानपुर
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अभी तुममें जवानी है पता है। हमारी भी कहानी है पता है।। तुम्हारा शहर होगा खूबसूरत ये श्रम की राजधानी है पता है।। अभी भी लोग जीभर देखते है इमारत वो पुरानी है पता है।। दरारें आ गयी रिश्तों में लेकिन हमें फिर भी निभानी है पता है।। गुरुरे-हुस्न वाज़िब है तुम्हारा मगर ये ज़िस्म फ़ानी है पता है।। इसे मत तौल दुनियावी नज़र से मसअला ये रूहानी है पता है।। सुरेशसाहनी कानपुरत
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सोच रहा हूँ अब क्या लिक्खूं। गीत ग़ज़ल या कविता लिक्खूं।। सब लिख डाला अजदादों ने उन बातों को कितना लिक्खूं।। अर्थ अनर्थ अनर्गल अनगढ़ आधा और अधूरा लिक्खूं।। या कुछ और प्रतीक्षा करके जो लिक्खूं वह पूरा लिक्खूं।। खुसरो ग़ालिब मीर कहूँ या तुलसी सूर कबीरा लिक्खूं।। धनपत राय न बन पाउँगा कम लिक्खूं या ज्यादा लिक्खूं।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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चल चलें फिर ज़िन्दगी की छांव में। घूम आयें यार अपने गांव में।। खींचतानी पेंचों-ख़म से दूर हों रंजो-ग़म दर्दो-अलम से दूर हों एक दिन तो ज़िन्दगी ऐसे जियें एक दिन तो हम न हम से दूर हों एक दिन खु़द को न पीसें दांव में।। एक दिन ढूंढ़े वहीं पगडंडियां वे रहट, वे बैल वाली गाडियाँ एक दिन सरसों के खेंतों में रहें एक दिन लें धूप वाली ठंडियां घूम आयें पार तट तक नाव में।। एक दिन हर रोज़ से हट कर मिलो गागरी लो और पनघट पर मिलो एक दिन सकुची लजाई सी पुनः ओढ़ कर घूंघट नदी तट पर मिलो डूब कर पावन प्रणय के भाव में।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आज नहीं तो कल बिछड़ेंगे । कब तक एक शाख पर होंगे।। आंधी और तूफान बने हैं बान और संधान बने हैं कभी शाख चरमरा उठेगी कभी धरा ही डगमग होगी पतझर कभी कभी बरसातें xमौसम से भी बढ़कर घातें आज आदमी कर सकता है हद से नीचे गिर सकता है जीवन है तो द्वन्द बहुत है उलझन अतिशय बन्ध बहुत है कब तक तुम इनसे भागोगे कब तक किसका शोक करोगे बीत गयी यदि मधू यामिनी रूठ गयी यदि अंक शायिनी तब क्या राग विहाग करोगे कितने दिन बसंत के होंगे उठो आज ही पीकर हाला बन जाओ प्रेमी मतवाला कल न मिलेगी यह मधुशाला कल न पिलाएगी यह बाला कल न रहेगी यौवन हाला प्यासा और पिलाने वाला तब केवल अफ़सोस करोगे कितने दिन बसंत के होंगे कितने दिन बसंत के होते याद करोगे रोते रोते तब जाने तुम कहाँ रहोगे तब जाने हम कहाँ रहेंगे कब तक एक साथ हम होंगे एक न एक दिन तो बिछुड़ेंगे।। सुरेश साहनी कानपुर
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कौन से सिद्धांत लेकर वह नशे में चूर है। जन सरोकारों से दूर आम आदमी से दूर है।। क्यों नहीं आवाज़ से आवाज़ मिल पाती है अब होटलों से झोंपड़ी है दूर कितनी दूर है।। क्या वो सोने की खदानों से हुआ है अवतरित कौड़ियों में अपनी किस्मत उस्की कोहिनूर है।। क्यों नहीं जाती है गंगा अपने अंतिम छोर तक दूर हैं दिल्ली से हम या हमसे दिल्ली दूर है।।
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सिर्फ़ पाना यही अहम है क्या। ग़म नहीं है इसी का ग़म है क्या।। आईना है कोई कोई पत्थर मेरे जैसा कोई सनम है क्या।। अहले- महफ़िल से हम भी रब्त नहीं देखना उसकी आँख नम है क्या।। साथ चलने से पहले तय कर लो आपका यह सही कदम है क्या।। लग्जिशें इतनी इस मुहल्ले में एक यही दैर ओ हरम है क्या।। चांदनी उसके दम से फैले है हुस्न को भी यही भरम है क्या।। सुरेश साहनी
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जाने किससे मुझे मुहब्बत थी। आपकी इक यही शिकायत थी।। मेरे मरने पे उज़्र है जिनको मेरे जीने से भी अज़ीयत थी।। उसने मुझको ज़मी पे क्यों भेजा जबकि उसको मेरी ज़रूरत थी।। उसकी बख्शीश है शराब मगर शेख की और ही नसीहत थी।। मैंने ख़ुद को बड़ा नहीं समझा ये मेरे अज़्म से बगावत थी।। मैंने यदि उसको पा लिया होता शिर्क की फिर किसे ज़रूरत थी।।सुरेश साहनी
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मुझको मालूम है क्या लगता हूँ। इश्क़ हूँ फिर भी फ़ना लगता हूँ।। ख़्वाबे-क़ुर्बत से निकल भी आओ खंडहर हूँ मैं नया लगता हूँ।। बद्दुआओं के शहर में गोया मैं बुजुर्गों की दुआ लगता हूँ।। लोग जब मुझको पढ़ा करते हैं उनकी गज़लों में कहा लगता हूँ।। क्यों मुझे याद किया करता है आज भी क्या मैं तेरा लगता हूँ।। मेरी तुर्बत का पता पूछे हो क्या मैं दुनिया से गया लगता हूँ।। हुस्न वालों ये गुमाँ ठीक नहीं मैं मुहब्बत का खुदा लगता हूँ।। सुरेश साहनी , kanpur 9451545132
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गया सूरज सितारे भी गये। जो बाक़ी थे वो सारे भी गये।। रहा जिनका ज़माना वो गये बड़े उनके पसारे भी गये।। वो शकुनि कंस कौरव तो गये यशोदा के दुलारे भी गये।। अंगूठे ले कलंकित भी हुए समय आया तो मारे भी गये।। वो जिस ताकत से गद्दीपर चढ़े उसी कारण उतारे भी गये।। ये मत समझो कि हम रह जायेंगे अभी तक तो हमारे भी गये।। चलो हम भी चलें क्योंकर जिए हमारे सब सहारे भी गये।। करम होगा ख़ुदा का हश्र में जो उस दम हम पुकारे भी गये।। सुरेश साहनी, कानपुर
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वेदना क्या थी हृदय से बोझ कम करते रहे। आँख पथराने न पाये रो के नम करते रहे।।... दूसरों को क्या लगा हमने कभी सोचा नहीं दूसरो को क्या बताते तुम ने जब पूछा नहीं और राहत के लिए खुद पे सितम करते रहे।। वेदना क्या थी हृदय से बोझ कम करते रहे ।... तुम गए मर्जी तुम्हारी हर कोई आज़ाद है हम लुटे नियति हमारी व्यर्थ का अवसाद है लौट कर तुम आओगे हाँ ये वहम करते रहे।। वेदना क्या थी ह्रदय से बोझ कम करते रहे ।.... प्रेम क्या है मूढ़ता है बचपना है वेदना प्रेम क्या है मन कुसुम को कंटकों से भेदना और ऐसी मूढ़तायें हम स्वयम् करते रहे।। वेदना क्या थी हृदय से बोझ कम करते रहे।.... सुरेशसाहनी, कानपुर
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मित्रों के ये हंसमुख चेहरे जैसे कई गुलाब खिले हों। जैसे अभी अभी सब साथी अपने घर ही आन मिले हों।। ये ही मिलना हंस-बतियाना बात-बतंगड़ हंसी-ठिठोली। नित नित मेले नित नित उत्सव नित दीवाली नित नित होली।। सबसे दूर अगर है डेरा अर्थहीन है साँझ सबेरा। आना जाना जाना आना जीवन जोगी वाला फेरा।। अगर मित्र संग हैं तो रद्दी- पेपर बन जाता है थाली। मित्रों की संतृप्ति यही है हर गिलास हो जाये खाली।। सुरेशसाहनी
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फासले क्यों हैं दिलों के दरमियां। अजनबी जैसा लगे हैं क्यों ज़हाँ।। इससे अच्छा दूर रहकर ठीक थे पास के रिश्तों में जब हैं दूरियाँ।। सोचता हूँ इस उनींदी रात में माँ अगर होती सुनाती लोरियां।। गांव में बच्चे सयाने क्या हुए राह तकती रह गयी झरबेरियाँ।। मम्मिया चिंतित हैं बच्चों के लिए प्यार क्यों करती हैं उनकी दादियां।। पत्थरों को पूज कर अब आदमी दे रहा है आदमी को धमकियां।।
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आपकी डायरी में हम हैं क्या। हम भी महफ़िल में मोहतरम हैं क्या।। आईना है कोई कोई पत्थर मोम सा भी कोई सनम है क्या।। अहले- महफ़िल से हम भी रब्त नहीं देखना उसकी आँख नम है क्या।। साथ चलने से पहले तय कर लो आपका यह सही कदम है क्या।। लग्जिशें इतनी इस मुहल्ले में एक यही दैर ओ हरम है क्या।। चांदनी उसके दम से फैले है हुस्न को भी यही भरम है क्या।।
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हम से सभी बड़े हैं बाबा। केवल हम पिछड़े हैं बाबा।। सब माया है कहने वाले धन के लिए लड़े हैं बाबा।। ऊपर से सुन्दर विचार हैं मन से गले सड़े हैं बाबा।। बाबा किनके लिए लड़े तुम सब के सब अगड़े हैं बाबा।। जातिवाद से लड़ने वाले जातिन मे जकडे हैं बाबा।। शायद इनकी गद्दी छिन गयी इसीलिए उखड़े हैं बाबा।। कौन यहाँ दुर्बल है किससे सारे ही तगड़े हैं बाबा।। अहंकार छोड़ेगा कैसे हम कस के पकड़े हैं बाबा।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जिस ओर अपने चाहने वाले गए थे दोस्त। पत्थर उधर से हम पे उछाले गये थे दोस्त।। बेशक़ वो आशना थे जिन्होंने हमें डसा क्या आस्तीं में इसलिए पाले गए थे दोस्त।। एहसान जैसे ग़म कई झोली में डालकर खुशियाँ तमाम घर से उठा ले गए थे दोस्त।। रुसवाईयों के साथ बराबर बने रहे महफ़िल से हम हजार निकाले गए थे दोस्त।। मक़तल से कौन ले गया सिर क्या पता सुरेश करने तो हम तेरे ही हवाले गए थे दोस्त।। सुरेश साहनी, कानपुर
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आँखों पर पट्टी बांधो सुविधाएं लो। किसने तुमको बोला सच की राह चलो।। सच दिख जाये तो दाएं बाएं ताको कोई पूछे सच उल्टा सीधा बोलो।। कान नहीं होते हैं अब दीवारों के अब जनता भी आँखे मूंदे रहती है। आज द्रौपदी जितना चीखे चिल्लाये दुःशासन से जनता सहमत रहती है।। कभी राम से सत्ता छीनी जाती है कभी विभीषण को सत्ता दी जाती है।। कभी अंगूठा एकलव्य का कटता है और धर्म की मर्यादा रह जाती है।। राजनीति पासा चौसर चौपाटी है। भैंस उसी की होगी जिसकी लाठी है।। मत अधीर हो ऐसा होता आया है लोकतंत्र का चीरहरण परिपाटी है।।
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रंग भी रंग कम बदलते हैं। आप तो हर कदम बदलते हैं।। आप भी कितने क्रांतिकारी हैं बेतहाशा कलम बदलते हैं।। दैरो काबा से शहरे- कूफ़े तक रोज उनके अलम बदलते हैं।। जो मदावा थे आखिरी दम तक आज वो दम-ब-दम बदलते है।। जब तलक मिल न जाये मैखाना हम भी दैरो हरम बदलते हैं।। रिन्द अपनी जुबां पे कायम हैं दीन वाले धरम बदलते हैं।। कैसे साकी हैं देखकर चेहरे जो सुराही के खम बदलते हैं।।
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कोई वादा न तो क़रार करें। प्यार करना है सिर्फ प्यार करें।। आप टूटे हैं अपनी हरकत से किसने बोला था प्यार वार करें।। लीजिए इस तरफ उधर दीजै हम मुहब्बत में क्यों उधार करें।। प्यार का शोर प्यार की चर्चा क्या ज़रूरी है इश्तेहार करें।। इश्क़ करना भी क्या ज़रुरी है और दुनिया के कारोबार करें।। नफरतों में है मुब्तिला दुनिया सिर्फ़ पागल कहे हैं प्यार करें।। आप भी सुर्खियों में आएंगे काम कोई तो नागवार करें।। दिल कहीं आप पे न आ जाये हरकतों में ज़रा सुधार करें।। साहनी कुछ समझ नहीं आता क्या करें और क्या न यार करें।। सुरेश साहनी कानपुर
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इस ग़ज़ल पर आप सब की ख़ास तवज्जो चाहूंगा...... कब तक रखें दिलासे लोग। हारे भूखे प्यासे लोग।। दरिया दरियादिल तो रह आये हैं सहरा से लोग।। दिल्ली लुट जाएगी क्या ढेरों पुलिस जरा से लोग।। क्यों दहकां से डरते हैं सारे अच्छे खासे लोग।। क्यों शासन को लगते हैं मजमें और तमाशे लोग।। हाँ जुमलों के भारी हैं कौड़ी तोला माशे लोग।। क्या फ़कीर हो जाते हैं ले हाथों में कासे लोग।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
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तुम्हारे साथ होली है तो होली है।। हंसी ठट्ठा ठिठोली है तो होली है।। भरी रंगों की पिचकारी तुम्हारी भीगती सारी और उसपे तंग चोली है तो होली है।। कोई गाता कबीरा है कहीं उड़ता अबीरा है चन्दन रंग रोली है तो होली है।। कहीं पापड़ कहीं गुझिया कहीं ठंडाई है बढ़िया कहीं पर भांग गोली है तो होली है।। झाँझ और चंग बजते है ढोल मृदंग बजते है मिले मस्तों की टोली है तो होली है।। कहीं इक मस्त साली है कहीं सरहज बवाली है मधुर भाभी की बोली है तो होली है।। कहीं जीजा मिले हंसकर कहीं मनुहार रत देवर- ने मन की गांठ खोली है तो होली है।। सभी अपनों की यारों की नाते- रिश्ते दारों की भरी खुशियों से झोली है तो होली है।। #सुरेशसाहनी
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लाशन पर व्यापार हुइ रहे। तन दुरुस्त सरकार हुइ रहे।। सेना जूझ रही सीमा पर नेता जी तैयार हुइ रहे ।। खाना पीना खूब मिलत है अब चुनाव तेवहार हुइ रहे।। दुश्मन की अइसी की तइसी बातन से यलगार हुइ रहे।। जनता जानि रही नेताजी डूब रहे या पार हुइ रहे ।। जगह नहीं आदमी चलन की अब कुलियन में कार हुइ रहे।। जइस हैसियत तइसे दुलहा सम्बन्धौ बाजार हुइ रहे ।। #सुरेशसाहनी
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ई पढ़ लेगा तो का होगा तब मछरी कैसे मारेगा ई टीचर केतना बुरबक है ई कइसा जिद्दी अहमक है ई बच्चों को भड़काता है शिक्षा का मोल बताता है जब बच्चा सब पढ़ जाएगा मजदूर कहाँ से आएगा नद्दी जाकर मछरी मारे ताड़ी पियें सब भिनसारे एही ना इनका जीवन है ई टीचर है या दुर्जन है जो सबको शिक्षा देता है ई गांव बिगाड़े देता है जब बच्चा सब पढ़ जाएगा हमरा सिस्टम सड़ जाएगा शिक्षा की जोती बारेगा जन जीतेगा हम हारेगा हम बच्चों को समझायेगा कौनो स्कूल न जाएगा सब मछरी चाउर खायेगा खा पीकर देह बनाएगा..... #सुरेशसाहनी
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है एक दर्द जो दिल को क़रार देता है। है एक दर्द जो जीवन संवार देता है।। पर एक दर्द जो दिल की उजाड़ दे दुनिया ये दर्द कौन मुझे बार बार देता है।। ये दर्द जिस को में सौ बार मर के जीता हूँ ये मेरे इश्क़ को खुशियाँ हज़ार देता है।। तुम्हारे होठ के प्याले नज़र के मयखाने ये इंतज़ाम नशा ही उतार देता है।। तुम्हारा इश्क़ ही काफी है बेख़ुदी के लिये तुम्हारा दर्द बला का खुमार देता है।। सुरेश साहनी यूँ लिख सके यक़ीन नहीं कोई तो उसको ये गज़लें उधार देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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फिर ख्यालों में झुला ले मुझको। फिर से ख़्वाबों में बुला ले मुझको।। तेरी यादों में बहुत जागा हूँ अपने पहलू में सुला ले मुझको।। तुझको लगता है बहुत खुश हूँ तो आज जी भर के रुला ले मुझको।। इक दफा प्यार जता झूठ सही मुझको बहला ले भुला ले मुझको।। एक गुब्बारे सा उडूँगा फिर मैं प्यार से अपने फुला ले मुझको।। बेच दूँ ख़ुद को फ़क़त तेरे लिए कौड़ियों में न तुला ले मुझको।। ज़िन्दगी पर तुझे शक़ है तो सुरेश आ हिला और डुला ले मुझको।। सुरेश साहनी, कानपुर
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सुनहरी धूप का आँचल लहक जाता है जाने क्यों। भ्रमर एक फूल से मिलकर महक जाता है जाने क्यों।। अभी तो रात की रानी ने घूंघट भी नहीं खोला क्षितिज पर तब कोई सूरज ठिठक जाता है जाने क्यों।। सपन जिस गाम पर टूटे जहाँ पर हम गये लुटे उसी मकतल पे आकर मन अटक जाता है जाने क्यों।। किसी की मदभरी आँखें किसी की रसभरी बातें ये मन भी देख कर सुनकर बहक जाता है जाने क्यों।। अचानक सामने पड़कर नज़र उसका झुका लेना मगर उस शोख़ का आँचल सरक जाता है जाने क्यों।।
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गजलें रूहानी कहता है दुनिया को फ़ानी कहता है । ना माज़ी ना मुस्तकबिल की बातें दरम्यानी कहता है।। सच को सच कह देने वाली उसमें यह बीमारी तो है दूध अगर है दूध कहेगा पानी को पानी कहता है।। जब बौने तक अपने लंबे साये पर इतरा उठते हैं वह कहता है ख़ुद को अदना सचमुच लासानी कहता है।। शायद वह सचमुच मूरख है या कुछ ज्यादा ही है ज्ञानी ख़ुद अनजान बना रहता है औरों को ज्ञानी कहता है।। यूँ मंचों पर कम आता है पर आते ही जम जाता है ग़ज़ल कहो तो नज़्म पढ़ेगा अपनी मनमानी कहता है।। बेशक़ पागलपन की हद तक उसने प्यार किया है लेकिन उस पर माइल हो जाने को मेरी नादानी कहता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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कुछ कालजयी हो जाये मन जब है इतना छोटा जीवन ।। सांसो के आने जाने से जीवन है यह सच्चाई है पर सांसों के रुक जाने पर आगे क्या कुछ भरपाई है क्या आगे है आगमन गमन।। तन तम्बूरे के तारों की क्या गारंटी वारंटी है कब टूटेगा यह बतला दे ऐसी क्या कोई घण्टी है इक उम्र तलक तो हो जीवन।। बचपन खेला मन झूमा मन यौवन मतवाला बीता है जब काया माया जीर्ण हुयी तब रोता है सब रीता है क्यों भूल गया जब था यौवन।। सुरेशसाहनी
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एक व्यंग लेख जम्बूद्वीप के पंत प्रधान जी सप्ताह भर के लिए एक गुफा में समाधि ले चुके थे।किंचित वह आठ-आठ प्रहर कार्य और राष्ट्रीय निर्वाचन कार्यक्रमों में अनवरत सहभगिता से क्लांत हो चुके थे। यद्यपि समस्त परिणाम अपेक्षित ही आ रहे थे। उनके दलों की जीत तय थी। सरकारी संस्थान अपनी गति से लाभ लेते हुए डूब रहे थे।सरकार के सर से सरकारी नौकरियों का बोझ लगभग कम हो चला था।राष्ट्र रक्षा के लिए विनिवेश यज्ञ निर्विध्न चल रहा था।विदेशी निवेश के जो कार्य सन 47 से अवरुद्ध थे ,लगभग पुनः प्रारम्भ हो चुके थे। और देश मे संकुचित निजी क्षेत्र द्रुत गति से विस्तार पा रहा था।किंतु कहीं तो कोई ऐसी बात थी जिससे हमारे विश्वगुरु बनने के लक्ष्य में बाधा उत्पन्न हो रही थी। एक सप्ताह के मौन ने कई रमणियों को ध्यानस्थ सन्त को सांसारिक बनाने हेतु उद्विग्न कर दिया था। कुछ सधवाएँ राष्ट्रघाट पर अपने सुन्दर कैशराशियों की आहुति देने को आतुर थीं ।कुछ दूरदर्शी चित्रखींचक यंत्र समूहों के आगे प्रसन्न भाव से तांडव नृत्य प्रदर्शन में लग चुकी थीं। कई देवता इंद्र और स्वयं शिव नारद-रक्तबीजीय अवतारों से पंत प्रधान की क्...
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कोई बेशक़ गुलाब है तो क्या। वो कहीं का नवाब है तो क्या।। अपनी ख़ुद्दारियाँ न बेचूँगा लाख हालत ख़राब है तो क्या।। उनके कहने से मर न जाऊंगा ज़िंदगानी अज़ाब है तो क्या ।। वो हक़ीक़त तो हो न जाएगा सच के जैसा ही ख़्वाब है तो क्या।। आदमियत नहीं तो लानत है उसका इतना रुआब है तो क्या।। कौन भर पायेगा जगह किसकी लाख उसका जवाब है तो क्या।। कौन सानी है साहनी तेरा वो भले लाजवाब है तो क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
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दुनिया से यारी पर कितने साथ चले। हारी - बीमारी पर कितने साथ चले।। मेले में मिल गए खो गए मेले में मेला है जारी पर कितने साथ चले।। दुनिया भर में बने सिकन्दर फिरते थे लश्कर था भारी पर कितने साथ चले।। मेरी मज़बूती में दुनिया साथ रही मेरी लाचारी पर कितने साथ चले।। घर से लेकर जग के कोने कोने में है रिश्तेदारी पर कितने साथ चले।। काश ये मरने वाले को भी दिख पाता अंतिम तैयारी पर कितने साथ चले।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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किसी कोने से दानिशवर नहीं हूँ। मैं अच्छा हूँ मगर बेहतर नहीं हूँ।। तेरा बीमार हूँ इतना पता है बस इतना है सरे-बिस्तर नहीं हूँ।। न जाने मैं कहाँ खोया हुआ हूँ कि घर पर होके भी घर पर नहीं हूँ।। अगर तू है तो मैं हूँ सुन ले साकी मैं शीशा हूँ कोई सागर नहीं हूँ।। ज़माने के ज़हर कितना पियूँ मैं मैं आदमजात हूँ शंकर नही हूँ।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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सब कहते हैं कौन है ये क्या करता है। उल जलूल या कुछ भी लिखता रहता है।। घरवाली नाराज है पर चुपके चुपके सखियों से कहती है अच्छा लगता है ।। मेरे पाठक मुझपर जब कुछ लिखते है हर्ष मुझे तब ज्ञानपीठ सा मिलता है।। दिनकर या प्रसाद होना कुछ मुश्किल है हाँ होने की कोशिश तो कर सकता है।। बड़े बड़े बरगद दिल्ली में रहते है उनकी छाया में कब कोई बढ़ता है।। हम दिल्ली से दूर पड़े हैं अच्छा है कम से कम हम जो हैं वह तो दिखता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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केहू बिखर गइल इहाँ केहू उजर गइल। देखलीं न केहू प्यार में परि के संवर गइल।। मिलला के पहले इश्क में दीवानगी रहल भेंटली त सगरो भूत वफ़ा के उतर गइल।। अईसन न जिन्नगी मिले केहू के रामजी जवानी उहाँ के राह निहारत निकर गइल।। कहलें जफ़र की जीन्नगी में चार दिन मिलल चाहत में दू गइल दू अगोरत गुजर गइल।। उनका के देख लिहलीं करेजा जुड़ा गइल उ हमके ताक दिहलें हमर प्रान तर गइल।। भटकल भीनहिये सांझ ले उ घर भी आ गईल बा बड़ मनई जे गिर के दुबारा सम्हर गईल।। हम आपके इयाद में बाटी इ ढेर बा इहे बहुत बा आँखि से दू लोर ढर गइल।। - Suresh Sahani
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इस विषपायी नीलकंठ को कितनी बार हलाहल दोगे। कब अपने हिस्से में आये अमृतघट का प्रतिफल दोगे।।.... तुम जब भी संकट में आये भोले त्राहिमाम चिल्लाये निज हिस्से के कालकूट को उनके खप्पर में भर आये कब तक उस ध्यानस्थ रुद्र को शहरों का कोलाहल दोगे।।.... शिव भोले हैं इसीलिए तुम उनको सस्ते में निपटाते नाग दुष्ट हैं आस्तीन के इसीलिए तुम दूध पिलाते शिव जैसे निश्छल रिश्तों को कब तुम निज अन्तस्थल दोगे।।.....
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बहाने बनाने की आदत नहीं है। मेरी सच छुपाने की आदत नहीं है।। तुम्हे याद करने की फुर्सत नहीं है मेरी भूल जाने की आदत नहीं है।। तुम्हारे सितम हँस के सहते रहेंगे भले चोट खाने की आदत नहीं है।। खामोशी को मेरी न शिकवा समझना यूँही मुस्कराने की आदत नहीं है।। तेरे हुस्न में बेख़ुदी है बला से मेरी लड़खड़ाने की आदत नहीं है।। जवानी में आकर बहकने लगे हो मेरी लाभ उठाने की आदत नहीं है।। सुरेश साहनी कानपुर
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खाक़ो-गर्दो-गुबार में खुश हूँ। हाँ मैं अपने मजार में खुश हूँ।। जाके कूंचा-ए-यार में खुश था आके अपने दयार में खुश हूँ।। वो ये लुत्फे-ख़लिश न समझेगा जबकि मैं इन्तिज़ार में खुश हूँ।। वो मेरे प्यार को न समझेगा मैं मगर उसके प्यार में खुश हूँ।। इतनी फुरसत कहाँ कि रंज़ करूँ बस गमें-रोजगार में खुश हूँ।। वो नहीं है तो सब बियावां है किसने बोला बहार में खुश हूँ।। इब्ने-मरियम को कौन समझाए मैं उसी के बुखार में खुश हूँ।। ज़ुल्म को प्यार क्यों न हो जाता मै जो सर देके दार में खुश हूँ।। वो मेरे दिल से जा नहीं सकता मैं इसी एतबार में खुश हूँ।। सुरेश साहनी ,कानपुर
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हम को चाँद सितारों वाली बातें भाती हैं। जादू बौने परियों वाली बातें भाती हैं।। तुम को पिज्जा बर्गर बियर अच्छे लगते है हम को कुल्फी कुलचों वाली बातें भाती हैं।। वो तो धोखे में आकर हमने गलती कर दी वरना किसको जुमलों वाली बातें भाती हैं।। तुम्हे मुबारक टाई टमटम पब औ क्लब कल्चर हमको धोती गमछों वाली बातें भाती हैं।। उनको टाटा अम्बानी के मन की करनी है हमको आम गरीबों वाली बातें भाती हैं।। देश से धोखा करने वाले मेरे दुश्मन हैं हमको सिर्फ शहीदों वाली बाते भाती हैं।। सुरेशसाहनी,
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आज नहीं तो कल सुधरेगा। निश्चित कमअक्कल सुधरेगा।। बेमौसम ही बरस गया है जाने कब बादल सुधरेगा।। शहर जंगलों से बदतर है कहते हैं जंगल सुधरेगा।। कर ले मात पिता की सेवा इससे तेरा कल सुधरेगा।। परमारथ में ध्यान लगा ले इससे मन चंचल सुधरेगा। जब सब डाकू बन जायेंगे तब जाकर चम्बल सुधरेगा।। हम सुधरेंगे जग सुधरेगा तब अंचल अंचल सुधरेगा।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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काश कि हम बदल गए होते। चंद सपने तो पल गए होते । हम अगर दिल की बात ना सुनते गिरते गिरते सम्हल गए होते।। अपना गिरना हमें नहीं खलता साथ जो तुम फिसल गए होते।। हम भी आला मुकाम पर होते तुम भी आगे निकल गए होते।। टूटकर हम कहाँ कहाँ बिखरे बच भी जाते तो ढल गए होते।। हमने ग़म को सम्हाल रखा है वरना चश्मे उबल गए होते।। Suresh Sahani Kanpur
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मैं भी उसके प्यारों में था। यार नही था यारों में था।। शायद उसको याद नहीं हो मैं कल के अखबारों में था।। जनता नाहक ही लड़ बैठी मसला तो सरकारों में था।। बाकी दिन भी जीने के हैं माना रंग बहारों में था।। उसकी फाकामस्ती देखो वो कल के ज़रदारों में था।। जाने कैसे भूल गया है मैं उसके किरदारों में था।। बस्ती बस्ती पगड़ी उछली झगड़ा इज़्ज़तदारों में था।। सुरेशसाहनी, कानपुर
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तेरी धड़कन सुनाई दे रही है। मेरी दुनिया दिखाई दे रही है।। तेरा बीमार होना ही शिफ़ा है अभी नाहक़ दवाई दे रही है।। मेरे पहलू में तेरी नफ़्स जैसे मुहब्बत की रजाई दे रही है।। खिले हैं फूल महकी हैं फिजायें हमें कुदरत बधाई दे रही है।। रूपहरी चांदनी भी माहरुख पर बिखर कर मुंहदिखाई दे रही है।। सुबह होने को है फिर एक हो लें तमन्ना फिर दुहाई दे रही है।। हमें लगता है हम तुम खो चुके हैं ये हालत पारसाई दे रही है।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरा किरदार मुझसे डर रहा है। कोई मुझमें अज़ीयत भर रहा है।। मेरे साये मेरे कद से बड़े हैं कोई माज़ी से रोशन कर रहा है।। मेरी यादों यहाँ से लौट जाओ कहाँ तक काफिला रहबर रहा है।। बुलाती हैं हमें भी कहकशांएँ मेरा परवाज़ हरदम सर रहा है।। मेरे हाथों में मरहम है ,शिफ़ा है तुम्हारे हाथ मे नश्तर रहा है।। ज़फा के पल फ़क़त दो चार होंगे मुहब्बत से सबब अक्सर रहा है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
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जीवन जितना रंगहीन था उतना ही रंगीन हो गया। प्रेम तुम्हारा पाकर प्रियतम याचक आज कुलीन हो गया।। कल इन प्रेम कथाओं में तुम साथ मेरे गाई जाओगी सोहनी हीर राधिका जैसे तुम भी दोहराई जाओगी चार दिनों वाला यह जीवन जैसे सर्वयुगीन हो गया।। प्रेम उपजते ही जीवन मे लाता है परिवर्तन कितने प्रेम करा देता है जड़ से भी क्षण भर में नर्तन कितने अपने अंदर का उच्छ्रंखल भी कितना शालीन हो गया।। सुरेश साहनी, कानपुर
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जब मैं कहता हूँ साम्यवाद भारतीय परिवेश में अप्रासंगिक है तो बुद्धिजीवी दिमाग लगाने लगते हैं।क्यों भाई मैं तो कम्युनिस्ट नहीं हूं।जब कम्युनिस्ट ही एक नहीं है तो आम जनता क्या करे। अरे भाई! वर्ग संघर्ष वहां सफल होगा जहां केवल पूंजी और श्रम के बीच संघर्ष हो।भारत मे जाति, धर्म,ऊंच नीच और जाने क्या क्या कारक हैं। भाई थोड़ा प्रैक्टिकल बनिये।अपनी लड़ाई सेकुलर पार्टियों के भरोसे क्यूँ छोड़ते हैं? बीते तीन दशकों का अध्ययन कीजिये।जब जातिवादी या व्यक्तिप्रधान पार्टियां,नई नवेली पार्टियां किसी राज्य की सारी सीट्स पर चुनाव लड़ती हैं,तब आप दस से बीस टिकट दे पाते हो।आपको अपने सिमटते जाने का एहसास क्यों नहीं हुआ।आप ने मामा की बन्दूक मजबूत करी।उसके सहारे फासीवाद से लड़ते रहे । लेकिन जहाँ सत्ता मिली वहाँ आप खुद फासीवादी होते रहे।आपकी इसी प्रवृत्ति से आपका जनाधार खिसकता रहा।आप को समझना चाहिए था।जनमत सड़क पर चिल्लाता है। यदि आप सत्ता से बाहर हैं तो केवल अतिआदर्शवाद के कारण। शुद्ध वीतरागी ,औघड़,अनासक्त सन्यासी किसे पसन्द है।तुम मनमोहन और माणिक की ईमानदारी पर रीझते रहो। जनता को आसाराम और नित्...
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मैं चन्दनवन सा शापित हूँ। कोमल मन लेकर भावहीन प्रस्तर ज्यूँ प्राण प्रतिष्ठित हूँ।।..... मेरी शीतलता के कारण मुझको खाण्डव सा जलना है मेरी सुगन्ध के कारण ही मुझको कांटों में पलना है सज्जित हूँ यदि प्रासादों में मत समझो मन से जीवित हूँ।। मैं... ज्ञानी मस्तक पर लेपित हो मैं जितना गर्वित होता हूँ उतना ही अभिमानी ललाट- पर चढ़कर लज्जित रहता हूँ व्यसनी तन पर अभिलेपित निज-आहुतियों से अवकुंठित हूँ।।मैं..... मृगतृष्णाओं ने पग पग पर पग में मरुथल पहनाए हैं विषया विषयी इच्छाओं ने तन पर विषधर लिपटाये हैं जैसे बेजान खिलौना बन औरों के हाथ नियंत्रित हूँ।।... मैं चन्दनवन सा शापित हूँ.....
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कभी देखा है फिल्मों के जीवन लाल को राम राम कहकर गिरवी लेते हुए पहले हल फिर बैल फिर खेत फिर किसान को भी बंधक बनाकर किसान की बेबस जोरू को उसके बच्चों की भूख पर दया दिखाकर लाज लूटने की कोशिश करते हुए समझोगे सब समझ जाओगे अभी रेलवे , बैंक और एयर पोर्ट बिक रहे हैं फिर नौकरिया जाएगी तब तुम्हारे खेत खलिहान और घर की बारी आएगी अभी तो फ़िल्म देखो राम राम!!! सुरेश साहनी, कानपुर
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कब न थे कब थे हमारी ज़िन्दगी के मायने। आप कब समझे हमारी किस खुशी के मायने।। मेरे जीते जी न समझा जो हमारे दर्द को क्या समझता फिर हमारी खुदकुशी के मायने।। हुस्न वालों को पता है हुस्न की रांनाईयाँ इश्क़ वाले जानते हैं आशिक़ी के मायने।। जिस ख़ुदा की राह में मरता रहा है आदमी क्या पता है उस ख़ुदा को बन्दगी के मायने।। हम से बेपर्दा हुआ जो क़ुर्बतों के नाम पर वो हमें समझा रहा है पर्दगी के मायने।। जो चरागों को बुझाने में हवा के साथ थे क्या बतायेंगे हमें वो रोशनी के मायने।। कितनी दरियाओं का पानी पी रहा है रात दिन इक समन्दर को पता है तिश्नगी के मायने।। सुरेश साहनी, कानपुर
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मेरा चंदा मेरे तारे साथ रहे।। जाने कितने ख़्वाब हमारे साथ रहे।। यूँ तो मैंने दिन काटे तन्हाई में वक़्त पड़ा तो अपने सारे साथ रहे।। अंधियारे तन्हाई वाले क्या डसते उनकी यादों के उजियारे साथ रहे।। खुशियों की दौलत ने वो दिल बांट दिये वर्षों तक जो ग़म के मारे साथ रहे।। सूट बूट ने उनको हमसे अलग किया जो बचपन मे खूब उघारे साथ रहे।। डेरे वालों ने कब साथ दिया किसका राहों में अक्सर बंजारे साथ रहे।। हर होली में एक दुआ हम करते हैं खुशियों का हर रंग तुम्हारे साथ रहे।। सुरेश साहनी,कानपुर
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कुछ मदमाता कुछ अलसाया। #फागुन आया फागुन आया।। बाबा भटक रहे महुवारी मह मह महक रही अमवारी ये बौराए वो बौराया।। फागुन आया.... बासन्ती पतझर सी होली घर अँगनाई हंसी ठिठोली सब कुछ सबके मन को भाया।।फागुन आया.. लेकिन सब कुछ सही नहीं है खेती बाड़ी सही नहीं है बजट देख कर सर चकराया।।फागुन आया. सुरेशसाहनी ,कानपुर
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तुमसे होली में मिल लेते होली हो जाती तन मन सतरंगी कर लेते होली हो जाती तुमको सिर्फ निहारा करना फागुन लगता है तुमको बाहों में भर लेते होली हो जाती एक तरफा यह प्रीत हमारी सूखा सावन है तुम स्वीकार हमें कर लेते होली हो जाती तुम चाहो तो जीवन अपना जीवन हो जाता तुमको होली में रंग लेते होली हो जाती #होली Suresh Sahani
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छोड़ आया कुछ खास नदी में। छूटा जब मधुमास नदी में।। हिमगिरि का सन्यास नदी में बह निकला अभ्यास नदी में।। पार गया फिर क्या लौटेगा डूब गया विश्वास नदी में।। चाँद तुम्हारे साथ किसी दिन उतरा था आकाश नदी में।। आज नदी खुद ले आयी है सागर का एहसास नदी में।। तेरी जुल्फें ही थी गोया इतना था विन्यास नदी में।। उसकी आँखों में मत झाँको है इक गहरी प्यास नदी में।। आज नदी मद्धम बहती है पहले था उल्लास नदी में।। दिल मेरा मुश्किल है मिलना खोया था बिंदास नदी में।। सुरेश साहनी अदीब, कानपुर सम्पर्क- 9451545132
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आंखों के समन्दर में खजाने न ढूँढिये। दिल भर चुका है इसमे ठिकाने न ढूंढिये।। इक बार तर्क़ कर लिया रिश्ता ख़ुद आपने अब फिर से क़ुर्बतों के बहाने न ढूंढिये।। हम आज भी हक़ीक़तों के पायेदार हैं हममें जहान भर के फसाने न ढूंढिये।। साजे-दिले-शिकस्त से सुर फूटते नहीं इसमें मुहब्बतों के तराने न ढूँढिये।। एक अज़नबी शहर हुआ दिल टूट कर मेरा गलियों में इसकी फिर से यगाने न ढूंढिये।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
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छुप गए हो तो नज़ारों की तरह मत मिलना। तुम मुझे चाँद सितारों की तरह मत मिलना।। एक मुझसे न मिले तुम कभी अपने बनकर मेरे अपनों से भी यारों की तरह मत मिलना।। ग़म के गिर्दाब में जब छोड़ दिया है तुमने डूबने पर भी किनारों की तरह मत मिलना।। डोलियाँ खुशियों की जब लूट चुके हो मेरी तब जनाज़े में कहारों की तरह मत मिलना।। अब खिजाओं में भी हम सीख गए हैं खिलना अब जो मिलना तो बहारों की तरह मत मिलना।। अब तुम्हें देख के भी दिल मे न होगी हरक़त अर्श के टूटते तारों की तरह मत मिलना।। जबकि साहिल न हुये कैफ़ में तुम कश्ती के आज गिरते से कगारों की तरह मत मिलना।। सुरेश साहनी कानपुर