वो मुझे सच मे भुला देता क्या।

इससे बढ़कर वो सज़ा देता क्या।।

प्यार से वो रहा महरूम तो फिर

सबको नफ़रत के सिवा देता क्या।।

मैंने दामन तो बिछाया था मगर

टूटता  तारा   भला  देता  क्या।।

मुन्तज़िर होके जो पुरकैफ़ हुआ

वस्ल भी उतना मज़ा देता क्या।।

यूँ तेरी नफ़रतें तस्लीम करी

आग को और हवा देता क्या।।

दर्द औ ग़म दिये तन्हाई दी

इश्क़ में और दवा देता क्या।।

हमपे इतना भी सितम ठीक नहीं

यार मैं ख़ुद को मिटा देता क्या।।

सब भुलाने के जतन ठीक मगर

दिल से तस्वीर हटा देता क्या।।


सुरेश साहनी अदीब कानपुर

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