होठ हुए बोसीदनी अमलतास सी देह।
स्वास फागुनी गन्ध को पाकर हुई विदेह।।
पिय बिन ऋतु फागुन कहाँ पिय बिन क्या मधुमास।
इधर विरह की वेदना उधर मदन के त्रास।।
पीय स्वप्न में क्या मिले दग्ध हो उठी श्वास ।
गाल शर्म से हो गए दहके लाल पलाश।।
देह तपी सूखे अधर नैन हुए रतनार।
सांसें सारंगी हुई तन वीणा के तार।।
आपन आपन बा खुशी आपन आपन क्लेश।
जे दूनों से दूर बा उनकर नाम सुरेश।।
देवर गए विदेश सब ननद आपने देश।
यार मिले गांजा पिये कन्त हुए दरवेश।।
मास चैत्र की गा रहे धुन खग मृग अलीवृंद।
विरहिन तन से फूटती अब भी फागुन गंध।।
सुरेश साहनी,कानपुर
9451545132
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