चल चलें फिर ज़िन्दगी की छांव में।

घूम आयें यार अपने गांव में।।


खींचतानी पेंचों-ख़म से दूर हों

रंजो-ग़म दर्दो-अलम से दूर हों

एक दिन तो ज़िन्दगी ऐसे जियें

एक दिन तो हम न हम से दूर हों


एक दिन खु़द को न पीसें दांव में।।


एक दिन ढूंढ़े वहीं पगडंडियां

वे रहट, वे बैल वाली गाडियाँ

एक दिन सरसों के खेंतों में रहें

एक दिन लें धूप वाली ठंडियां


घूम आयें पार तट तक नाव में।।


एक दिन हर रोज़ से हट कर मिलो

गागरी लो और पनघट पर मिलो

एक दिन सकुची लजाई सी पुनः

ओढ़ कर घूंघट नदी तट पर मिलो


डूब कर पावन प्रणय के भाव  में।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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