शायद न टूट जाऊं कड़ी एहतियात में।

सौ सौ दफा मरा हूं इसी इक हयात में।।


जिस पर कदम कदम पे मुहब्बत के नक्श हों

क्या ऐसी रहगुजर है कहीं कायनात में।।


नफरत का कारोबार विरासत है आपकी

इतनी समझ कहां है अभी अखलियात में।।


सुरेश साहनी

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