जिस ओर अपने चाहने वाले गए थे दोस्त।
पत्थर उधर से हम पे उछाले गये थे दोस्त।।
बेशक़ वो आशना थे जिन्होंने हमें डसा
क्या आस्तीं में इसलिए पाले गए थे दोस्त।।
एहसान जैसे ग़म कई झोली में डालकर
खुशियाँ तमाम घर से उठा ले गए थे दोस्त।।
रुसवाईयों के साथ बराबर बने रहे
महफ़िल से हम हजार निकाले गए थे दोस्त।।
मक़तल से कौन ले गया सिर क्या पता सुरेश
करने तो हम तेरे ही हवाले गए थे दोस्त।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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