बात आने पे टालते क्यों हो।
फिर ये किस्से उछालते क्यों हो।।
दिल की बस्ती धधक भी सकती है
आग सीनों में पालते क्यों हो।।
यूँ भी ये दिल है आईने जैसा
साफ पानी खंगालते क्यो है।।
मैकदे में नए नए हो क्या
चाल अपनी सम्हालते क्यों हो।।
ख़त है ये , कोई इश्तेहार नहीं
सबके आगे निकालते क्यों हो।।
सुरेश साहनी कानपुर
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