ज़ीस्त जब पेंचोखम बढ़ाती है।

मुफ़लिसी हर वहम बढ़ाती है।।


हैफ़ शीशा कहे है सागर से

तिश्नगी ज़ेरोबम बढ़ाती है।।


मौत आती है इस तरफ या फिर

ज़िंदगानी कदम बढ़ाती है।।


होश वाले कहाँ से समझेंगे

बेखुदी और दम बढ़ाती है।।


हुस्न परवाज़ को मचलता है

आशिकी जब कदम बढ़ाती है।।


ज़िन्दगी ताल पर नहीं रहती

बेबसी जब भी सम बढ़ाती है।।


बेख़ुदी में खलल न पड़ जाए

वो सुराही के खम बढ़ाती है।।


सुरेश साहनी,कानपुर

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