सरपरस्ती में हम नहीं रहते।

उनकी बस्ती में हम नहीं रहते।।

जब कभी उनको देख लेते हैं

अपनी हस्ती में हम नहीं रहते।।

जिसमें रिश्ते अदब न याद रहें

ऐसी मस्ती में हम नहीं रहते।।

दिल लुटाते तो लुटा देते हैं 

तंगदस्ती में हम नहीं रखते।।

दिल के सौदे में हुज़्ज़तें कैसी

महंगी सस्ती में हम नहीं रहते।।

क्या गिरस्ती है हम फकीरों की

इक गिरस्ती में हम नहीं  रहते।।

दिल मे रहना किसे पसंद नहीं

दिल की बस्ती में हम नहीं रहते।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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