कुछ जलते हैं कुछ चिढ़ते हैं।

कुछ मन ही मन में कुढ़ते हैं।।

हम तो   जो हैं   वही रहेंगे

बड़े लोग   घटते बढ़ते हैं।।

महरूम-ए-तहज़ीब-ओ-तमद्दुन

ये सब आखिर क्या पढ़ते हैं।।

मज़हब प्रेम सिखाता है तो

मज़हब मज़हब क्यों भिड़ते हैं।।

कैसे होंगे पुनः विश्वगुरु

जब हम आपस में लड़ते हैं।।

सुरेशसाहनी

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