वहाँ जिसके लिए मैं  लड़ रहा था।

वो गैरों के कसीदे  पढ़ रहा था।।

सुनाता और कहता दर्द किससे

मैं इक पत्थर की मूरत गढ़ रहा था।।

कोई दुनिया  जलाना चाहता था

उसी का सूर्य ऊपर चढ़ रहा था।।

वो ज़ालिम बेख़बर था दरहक़ीक़त

जो ढलने के लिए ही बढ़ रहा था।।

सुरेशसाहनी, कानपुर

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