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Showing posts from September, 2022
 कतरा नहीं रहा कभी कहते हैं सब सुरेश गोया  सभी समन्दरों के वारिसान हैं।।SS
 कहकशांओं में चाँद तारों में। आओ हम तुम चलें बहारों में।। बाद अपने भी लोग आएंगे रौशनी कर चलो  दयारों में।। कोई तुमसा कभी मिला ही नही कैसे कह दूँ  तुम्हे हज़ारों में।। हुस्न नीलाम हो गया होता ईश्क़ खोता अगर नज़ारों में।। वक्त के हाथ बिक गया होता प्यार बिकता अगर बाजारों में।। तुम मेरी रूह में समा जाओ जैसे महकी फ़िज़ा बहारों में।। डल के पानी में कुछ मिलावट है आग लगने लगी सिकारों में।। सुरेश साहनी
 मैं जब कभी बिखरा हूँ। कुछ और ही निखरा हूँ।। हालात ने मारा भी मौजों ने डुबाया भी हालात से उबरा भी लहरों ने बचाया भी जिस तरह मैं उजड़ा हूँ उतना ही मैं संवरा हूँ।। मैं जब कभी घेरा गया गर्दिश में फ़ांसा गया साजिश में मजबूत हुआ हूँ मैं हालात से वर्जिश में हाँ जब कभी टूटा  हूँ  फिर जोड़ के लौटा हूँ ।। मैं जब कभी  हाँ रात तो आयी है तकदीर का किस्सा है पर दिन का निकलना भी तदबीर का हिस्सा है  यूँ जब भी मैं गिरता  हूँ कुछ और ही उठता हूँ।मैं जब कभी मन मार के मत बैठो यूँ हार के मत बैठो तकदीर के लिक्खे को स्वीकार के मत बैठो सोचो की विधाता हूँ मैं खुद को बनाता हूँ।। मैं जब कभी
 हम अपना अस्तित्व खोजते रहे। दस दिन अपनी बगल झांकते रहे।। रावण को दस दिन मन भर देखा फिर उसकी गलती तलाशते रहे।।
 किसकी ख़ातिर रोना धोना। जीवन ही जब पाना खोना।। जाने कितने छोड़ गए पर दुख देता है अपना होना।। मृत्यु मुक्ति है या अच्छा है जीर्ण शीर्ण काया को ढोना।।  रहने पर नजरों में रखते जाने पर क्या आंख भिगोना।। मृत्यु हुई फिर कौन मिलेगा ढूँढ़ो  चाहे  कोना कोना ।। कलम किताबें अरतन बर्तन कपड़े लत्ते और बिछौना।। फिर दुनिया है मशरूफ़ों की हम जैसों को ख़ाली रोना।। जगना रोना अपनी फ़ितरत उनकी किस्मत खाना सोना।। सुरेश साहनी , कानपुर
 सिपाही हो दरोगा हो हमें इन सब से क्या लेना। मैं गाड़ी रोकता हूँ साब गोली मत चला देना।।
 उस जलवे की कितनी पर्दादारी की जां को दांव लगा कर मैंने यारी की साथ निभाना गोया एक गुनाह हुआ नादानी में गलती जैसे भारी की।।SS
 वो ज़िन्दगी भी अपनी कुछ खास ज़िन्दगी थी। वो उम्र वो लड़कपन बिंदास ज़िन्दगी थी।। उस दौर में भी आये जब सब लगे पराए इक तुमसे अपनेपन का एहसास ज़िन्दगी थी।।
 खीझ कर लज्जा किसी दिन  बन्ध सारे तोड़ देगी क्या करोगी जब प्रतीक्षा धैर्य अपना छोड़ देगी..... ठीक है मन बावरा है जो नहीं बस में हमारे या कि आवारा भ्रमर है रूप के रस का तुम्हारे और यह आवारगी ही इस कथा को मोड़ देगी....... तुम बहुत सुन्दर हो इतना भी अगर सुनना न चाहो प्रेम तुमसे क्यों जताएं तुम अगर गुनना न चाहो एक दिन तुमको तुम्हारी ऐंठ ही झिंझोड़ देगी .....  आज दर्पण देखकर तुम  मुग्ध हो कल क्या करोगी झुर्रियां चेहरे की लेकर क्या स्वयम से छुप सकोगी क्या करोगी तुम  नियति  जब रूप का घट फोड़ देगी...... सुरेश साहनी, कानपुर
 श्रद्धांजलि । इस तरह तुम यकायक कहाँ चल दिये। छोड़कर पीछे अपने निशां चल दिये।। तुम थे भटकी हुई कौम के राहबर किसलिए छोड़कर कारवाँ चल दिये।। मरहले मरहले लोग ताका किये और तुम थे कि बस बदगुमां चल दिये।। तोड़कर कसरेदिल दिलवरों के सनम क्या बनाने ख़ुदा का मकां चल दिये।। तुम ही आवाज थे तुम ही चुप हो गए बेजुबानों की लेके ज़ुबाँ चल दिये।। सुरेश साहनी कानपुर
 मत करो मुझसे मुहब्बत मत करो। दिल के मसले में तो हुज़्ज़त मत करो।। तुम न समझोगे मुहब्बत का चलन तर्के उल्फ़त की शिक़ायत मत करो।।
 मैं कबीर की तरह देख रहा हूँ चाँद आज भी उतना ही खूबसूरत है जितना खूबसूरत था कबीर के  समय पर मैं ब्रम्ह को नहीं तुम्हें याद करता हूँ तुम भी चाँद की तरह खूबसूरत हो शायद मैं भी तुम्हें याद आ रहा हूँगा बेशक़ मैं चाँद नहीं हूँ
 अपने हाथों में हुनर पैदा कर।  या दुआओं में असर  पैदा कर।। हाँ अगर रास्ता नहीं मिलता, इक नई राहगुजर पैदाकर।।
 दर्दे -ए -मुहब्बत पाले रख ।  आस का दीया   बाले रख ॥  मौला तुझसे  एक दुआ  , सबके हाथ निवाले   रख ॥  मंजिल भी मिल जाएगी , पहले पाँव में छाले  रख॥  यह बस्ती है   बहरों की, आप जुबां पे ताले रख ॥  राजनीति की फ़ितरत है , चोर लुटेरे   वाले  रख ॥ सुरेश साहनी, कानपुर
 सेना को हर बार बधाई। एल ओ सी में घुसकर मारा इसकी सौ सौ बार बधाई।। शिशुपालों की कितनी गलती कृष्ण क्षमा भी कब तक करते दुश्मन बढ़ता ही जाता था आखिर सहन कहाँ तक करते आख़िरकार उसी के घर में उसकी करनी पड़ी पिटाई।। क्रमशः दुष्ट दुःशासन अब माता के  चीर हरण तक जा पहुंचा था समझाने का समय जा चुका अब केवल वध ही बनता था शठे शाठ्यम समाचरेत् की हमने समुचित नीति निभाई।। एक के बदले दस मारेंगे मारेंगे कस कस मारेंगे यह सन्देश आज भेजा है अब घर में घुस घुस मारेंगे तेरे सौ टुकड़े कर देंगे अबकी जो गलती दोहराई।।              कवि-सुरेश साहनी,अदीब                     कानपुर
 रंग वो गर्दिश-ए-अय्याम के थे वरना हम आदमी तो काम के थे।। लोग कहने को बहुत थे अपने पर वो अपने भी  फ़क़त नाम के थे।। ख़ाली पैमाने को देखा किसने दोस्त मयनोश भरे ज़ाम के थे।। ग़म-ओ-तकलीफ में मुंह मोड़ गये दोस्त भी ऐश-ओ-आराम के थे।। वक्त ने जाने क्यों मुंह फेर लिया काम अपने मग़र ईनाम के थे।।  हमने तौबा से सुबह धो डालें लगे जो दाग़ हम पर  शाम के थे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 लुत्फ़ था इंतेज़ार में शायद वस्ल होते ही महवेयास हुआ वो जो क़ुर्बत में मुस्कुराता था आज हँसने पे क्यों उदास हुआ।।SS
 ज़हां से लौट जाएंगे किसी दिन। जो तन्हा ख़ुद को पायेंगे किसी दिन।। रक़ाबत भी मुहब्बत की तरह है उसे भी आजमाएंगे किसी दिन।। किसी की  चश्मेनम सब बोल देगी उसे जब याद आएंगे किसी दिन।। अभी रूठी हुई है ज़िंदगानी उसे मर कर मनाएंगे किसी दिन।। कि फानी हैं ये तन के आशियाने ये सारे टूट जायेंगे किसी दिन।। सुरेश साहनी,कानपुर
 एक बुजुर्ग ने कहा था "बच्चा !जीना चाहे मरना| यथा उचित देखना जहाँ पर तथा कार्य ही करना| अपने घर हो सके जहाँ तक वस्तु स्वदेशी लाना' बीबी लाना भले विदेशी नेता देशी चुनना ||--सुरेश साहनी
 या समय के साथ चलना सीख लो। या कि संघर्षों में पलना सीख लो।। या कि अपना लो ज़माने का चलन या ज़माने को बदलना  सीख लो।। सीख लो कुछ तर्ज़े मैख़ाना अदीब जैसे कि शीशे में ढलना सीख लो।। हर तरफ कुछ बाज़ हैं कुछ भेड़िये कूदना उड़ना उछलना सीख लो।। हैं ज़हाँ की राह पथरीली बड़ी ठोकरें खाकर सम्हलना सीख लो।। हाँ तुम्हारी इस अदा में धार है शोख नज़रों से मचलना सीख लो। सुरेश साहनी, kanpur
 सतुवा भूजा चोखा चटनी ईया बाबा दीदी बहिनी फूआ फूफा  काका काकी  लोटा थारी हाड़ी गगरी ओखरी मूसर जांता जांती कुछऊ बोलीं कविते लागी भोजपुरी ह अईसन बोली जनि शरमाईं बोली बोलीं  आपन बोली ,आपन बोली अइसन वइसन ,जईसन तयिसन  फूहर पातर ,बाउर नीमन करिया गोरहर सांवर उज्जर गीत गवनई बिरहा सोहर कुल  सोहगर मनगर मनसायन कुछऊ सोचीं लागी नीमन भोजपुरी ह अईसन बोली मिशरी जईसन आपन बोली
 तुम इतिहासों से  लुप्त हो गए  तुमसे तो सभ्यता आरम्भ हुयी है ज़रूर तुमने शक्ति पूजा  छोड़ दी होगी।।
 मैंने  सिर्फ  दुहाई दी है। तुमने तो रुसवाई दी है।। तुमने उल्फ़त के बदले में ठोकर पीर जुदाई दी है।। मैं रोया तो चुपके चुपके किसको चीख सुनाई दी है।। इश्क़ मुहब्बत को तुमने ही यह फ़िरक़ा-आराई दी है।। लगता है तुमको मालिक ने फ़ितरत ही हरजाई दी है।। सुरेश साहनी,कानपुर।।
 अपनी क़ायनात ज़रा सी भारी है बरसात ज़रा सी दिन छोटा दिनचर्या लम्बी नींद बड़ी पर रात ज़रा सी करवट करवट मीलों जगना ढेरों चिंता बात ज़रा सी दूर तलक पसरे अंधियारे मैं जुगनू औक़ात ज़रा सी शोर भरे सन्नाटे जैसे नाम समुन्दर जात ज़रा सी कुछ शिक़वे मौला से भी हैं  नाम बड़े ख़ैरात ज़रा सी........ सुरेश साहनी कानपुर
 और होते न इम्तिहां अपने आप होते जो जाने जां अपने तल्ख़ कैसे तअल्लुक़ात हुए कौन आया था  दरमियां अपने।। आप फिर भी तलाश सकते थे हमने छोड़े थे कुछ निशां अपने।। कौन दिल का चमन उजाड़ गया आशना जब थे  बागवां अपने।। किसने लूटी यकीन की दौलत अपने रहबर थे पासवां अपने ।। हमसुखन हमख्याल क्या होंगे अहले खंज़र हैं हमज़ुबां अपने।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हैरत होती है  जब तुम कहते हो मेरे प्रभु के सर पर छत नहीं है आश्चर्य होता है पुनः जब तुम कहते हो मेरा ख़ुदा का घर छिन गया क्या सचमुच तुम्हारे ईश्वर और ख़ुदा इतने लाचार हैं शायद यही सच है वरना उनकी हिफाज़त के लिए तुम लामबंद नहीं होते।
 कभी हँसने की कोशिश भी नहीं की। कभी रोने की वर्जिश भी नहीं की।। निगाहें डबडबायीं होठ काँपे जुबाँ ने कोई लरजिश भी नहीं की।। छुपाई भी नहीं ये ग़म की दौलत मगर इनकी नुमाइश भी नहीं की।। हमें जो भी मिला उसकी रज़ा से उसे पाने की ख़्वाहिश भी नहीं की।। बुरे हालात में फरियाद करते ये हरक़त दौरे- गर्दिश भी नहीं की।। तमन्ना थी ख़ुदा से वस्ल होता ख़ुदावालों ने जुम्बिश भी नहीं की।।   निभाने में न थे कोताह कत्तइ शिकन ,उफ्फ क्या है  लग्जिश भी नहीं की।। सुरेश साहनी 9451545132
 सिर्फ तीतर बटेर हैं ये सब। या कि मिट्टी के शेर हैं ये सब।। रोशनी ये किसी को क्या देंगे जब सरे दिन अंधेर हैं ये सब।। कल ये गरिया रहे थे सर चढ़ कर आज पैरों में ढेर हैं ये सब।।  लोक कल्याण के शिवार्चन में कैसे माने कनेर हैं ये सब।। सुरेश साहनी , कानपुर
 बेमआनी के ख़्वाब क्यों देखें। हम खिज़ां में गुलाब क्यों देखें।। सब से बेहतर हैं ढूँढ लें चश्में तिश्नगी में सराब क्यों देंखें।। क्यों न अपना मकां दुरुस्त करें उनका खाना ख़राब क्यों देखें।। अपनी आंखों से वो पिलाते हैं मयकदे में शराब क्यों देखें।। हम हैं दरवेश अपनी फ़ितरत से हम नवाबों के ख़्वाब क्यों देखें।। Suresh sahani, kanpur 9451545132
 जब भी जाते हैं सनमखाने में हम। ख़ुद को क्यों पाते हैं वीराने में हम।। आज भी मेरी हक़ीक़त में हैं वो आज भी हैं उनके अफसाने में हम।।  उस ख़ुदा को भी समझना चाहिए गलतियां करते हैं अनजाने में हम।। देख डाले जब कई दैरो-हरम तब तो आ पाये हैं मयखाने में हम।। आशिक़ी भी क्या अजब सी चीज़ है ख़ुद को भूले उन को बिसराने में हम।। ग़म के दरिया में वो गहराई कहाँ इस क़दर डूबे हैं पैमाने में हम।। ज़िन्दगी पाकर के रोये थे मगर मुतमइन हैं मौत को पाने में हम।। सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
 मित्र मेरे अनवरत बढ़ते रहे। इसलिए हम दीप बन जलते रहे।। इक मरुस्थल विश्व जैसे नेह बिन आत्मा निर्मूल्य जैसे देह बिन नेह में हम स्वयम् को छलते रहे।। अंत खाली हाथ रहना था हमें था भ्रमित कुछ भी न मिलना था हमें जानकर अनजान हम बनते रहे।। प्रेम में मिलना बिछड़ना गौण है ये सभी तो प्रेम पथ के मोड़ हैं हम बिना विचलित हुए चलते रहे।। सुरेश साहनी
 आप को हम पसंद हैं साहेब। आप किसकी पसन्द हैं साहेब।। हैसियत आप से भले कम है आरजूयें बुलन्द हैं साहेब।। क्यों हरेक बात पर उलझते हैं आप तो अक्लमन्द हैं साहेब।। आप को छोड़कर कहाँ जाएँ आपके फ़िक्रमंद हैं साहेब।। थम चुका हैं वो वक्त का तूफां अब हवा मन्द मन्द है साहेब।। आपने किस के सुन लिए शिकवे  अपनी बोली तो बन्द है साहेब।। आप को कौन बाँध सकता है आप खुद  बाकमन्द हैं साहेब।। आप को शौक है लुटा दीजै हम तो बस अर्जमन्द हैं साहेब।।   मेरे जैसे अगर हजारों हैं आप जैसे भी चन्द हैं साहेब।। सुरेश साहनी कानपुर
 बहुत सामान हमने कर लिए हैं। सफ़र आसान हमने कर लिए हैं।। ये दुनिया एक से कैसे सम्हलती कई भगवान हमने कर लिए हैं।। तेरे जन्नत में क्या है हुस्नो-सागर वही सामान हमने कर लिए हैं।। मुताबिक जो मेरे आमाल तौले नए मीजान हमने कर लिए हैं।।  उबारेंगे अगर दोज़ख से रोज़े तो भर रमजान हमने कर लिए हैं।। खुदा भी भीड़ से कैसे भिड़ेगा कई जजमान हमने कर लिए हैं।। अभी करने दे मौला मौज मस्ती भजन गुणगान हमने कर लिए हैं।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 प्रथम बार देखा था जैसे फिर उस तरह निहारो प्रियतम पुनः अपरिचित  बन कर आओ ए! कह पुनः पुकारो प्रियतम प्रथम मिलन अनुभूति दिव्य सी बिना छुए सनसनी दौड़ना मेरा भय कम्पित हो उठना और शिशिर में स्वेद छोड़ना उसी समय के कैनवास पर फिर वह चित्र उतारो प्रियतम छलिया श्याम घटा बन आओ तन मन सब हरषाओ प्रियतम बिजली बनकर मुझे डरा कर अपने अंक लगाओ प्रियतम दृष्टि मलिन थी या मन कलुषित इतना तो स्वीकारो प्रियतम सुरेश साहनी, कानपुर
 पूर्ण समर्पण सात स्वरों का हो तब ही संगीत बने। अक्षर अक्षर ब्रम्ह दिखे जब शब्द शब्द तब गीत बने।। मन मथ दे जब मन्मथ आकर तब रति की नवनीत बने। तब राधा खुद श्याम हो उठे प्रेम जगत की रीत बने।। सुरेश साहनी
 ये कोई मुद्दआ हुआ ना हुआ। मौत का तरज़ुमा हुआ ना हुआ।। यार मेरा ख़फ़ा हुआ न हुआ। दुश्मनों का भला हुआ ना हुआ । छोड़ जाने की क्या वज़ह पूछें एक वादा वफ़ा हुआ ना हुआ।। किससे जाकर करें शिक़ायत हम हल कोई मसअला हुआ ना हुआ।। उसने दिल से किया किया न किया काम कोई हुआ हुआ ना हुआ।। हम भी उसके कहाँ रहे दिल से वो हमारा जो ना हुआ ना हुआ।। ख़ुदकुशी की कई ज़मीरों ने क़द तो क़द है बड़ा हुआ ना हुआ।।
 उछल कर आसमानों को पकड़ लें। कहो तो प्यार से तुमको जकड़ लें।। मुहब्बत और बढ़ जाए अगरचे हम आपस मे ज़रा सा फिर  झगड़ लें।।  अभी मौसम सुहाना हो गया है  चलो फिर साइकिल पर इक भ्रमण लें।। चलो तुम भी तनिक तैयार हो लो रुको हम भी ज़रा खैनी रगड़ लें।। बला की खूबसूरत लग रही हो कहो तो एक चुम्बन और जड़ लें।। अभी रक्ताभ सूरत हो गयी है छुपाओ ये ज़हां वाले न तड़ लें।। चलो करते हैं कैंडल लाइट डिन्नर किसी होटल में मनमाफिक हुँसड़ लें।। चलो कुछ साल पीछे लौटते हैं इधर कुछ लोग हैं उस ओर बढ़ लें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जितना मुझसे दूर रहोगे। उतना ग़म से चूर रहोगे।। कुछ आदत से,कुछ फ़ितरत से कुछ दिल से मजबूर रहोगे।। इतना इतराते हो हरदम क्या ज़न्नत के हूर रहोगे।। जब ना रहेंगे दीवाने तब तुम भी कहाँ फितूर रहोगे।। साये को तरसोगे तुम भी बेशक़ बने खजूर रहोगे।। इश्क़ की आंखों में बस जाओ बोतल बन्द सुरूर रहोगे।। हम होंगे ख़िदमत में जानम तुम भी मेरे हुज़ूर रहोगे।। लिख डालो तारीख़ नहीं तो  पन्नों से काफूर रहोगे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 गए वक़्त की क्या बिसात है नवयुग को आने से रोके नित्य रात्रि के प्रहर बिताकर सूरज नया उगा करता है।। नित्य तिमिर आहुति लेता है उजियारो के स्वर्ण काल की उसी तिमिर को नित्य हराकर सूरज नया उगा करता है।। धर्म अर्गलाओं मे लटके है अधर्म के वल्कल कितने लगा दिए हैं रूढ़िवाद ने चिंतन पट पर साँकल कितने जनसत्ता के नन्दन कानन जब अधिनायक कटवाते है ढक लेते हैं इंद्रप्रस्थ को घृणावाद के जंगल कितने कभी कभी लगने लगता है वही उजालों के प्रतिनिधि हैं तब भ्रम का हर पुंज मिटाकर सूरज नया उगा करता है।। कभी मौलवी कभी पादरी कभी संत का धरकर बाना कभी धर्म को गाली देना और कभी गाली दिलवाना अपने स्वार्थ सिद्धि की ख़ातिर नित्य नित्य आदर्श बदलना  और स्वयम को ईश्वर कहकर अपनी ही पूजा करवाना धर्म वीथिकाओं में अक्सर अगर चीखती है मर्यादा  तब विलम्ब कुछ होता है पर सूरज नया उगा करता है।। सुरेश साहनी , कानपुर
 वर्ष शताधिक जियो अरिन्दम। जीवन का रस पियो अरिन्दम।। सदा सुहागन सदा वन्दिता साथ तुम्हारे रहे अंकिता सुख सम्पत्ति स्वास्थ्य के पथ पर सदा अग्रसर रहो अरिन्दम।। मने जन्मदिन उत्सव ऐसे मंगल गूंजे कलरव जैसे सब ग्रह हों अनुकूल तुम्हारे इतना आगे बढ़ो अरिन्दम।। सुरेश साहनी
 आप बेशक़ मकान वाले हैं। हम खुले आसमान वाले हैं।। आप तीरो-कमान वाले हैं। हम भी ऊंची उडान वाले हैं।। आप कहते हो आपकी दुनिया हम कहाँ उस जहान वाले हैं।। आप मुंह मे ज़बान रखते हो और एक हम ज़बान वाले हैं।। सारी दुनिया कुटुंब है अपना  हम जो हिन्दोस्तान वाले हैं।। जान देने का है हुनर हममें हम परिंदे भी शान वाले हैं।। आप ने अपने दाग कब देखे सिर्फ़ क्या हम निशान वाले हैं।। आप का इंतज़ार कर लेंगे यूँ भी हम इतमीनान वाले हैं।। बेवफाई पे सोच लीजेगा जान ले लेंगे जान वाले हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 नाम कुछ है आपका किरदार कुछ। कर रहे हैं आप कारोबार कुछ ।। कल यहाँ आँगन था ये मालूम है उठ गईं है अब यहाँ दीवार कुछ।। उस मसीहा को कहाँ मालूम है उसके कारण हो गए बीमार कुछ।। क्या हरीफ़ों से हैं सारी उलझनों मेरे अपनो में भी हैं अगियार कुछ।। आपने जिसका तमाशा कर दिया सच में था वह आदमी लाचार कुछ।। खुदकुशी दहकां ने कर ली  कर्ज से कह रहे हैं पर यहाँ अख़बार कुछ।। सुरेश साहनी,अदीब  कानपुर  9451545132
 क्या हुआ कोई तो ये बतलायेगा। या कि रोये-गायेगा चिल्लाएगा।। सब उठाते हैं सवालों पर सवाल कौन आके इनके हल समझायेगा।। लाख जलकर महफ़िलें रोशन करे सुबह तक तनहा दिया रह जायेगा।। हर दिखावे का सफ़र का खैरख्वाह हद से ज्यादा घाट तक पहुंचाएगा।। चार पैसे दान में क्या दे दिए चार सौ के पोस्टर छपवायेगा।। suresh sahani
 आप मुझे आवारा भी कह सकते हैं। अपने आप से हारा भी कह सकते हैं।। आप की मर्जी है हँस सकते है  हम पर  या किस्मत  का मारा भी कह सकते हैं।। हम जैसे बेघर का ठौर ठिकाना क्या आप मुझे बंजारा भी कह सकते हैं।।  नावाक़िफ़ हैं वे जो मेरे तेवर से  वो मुझको बेचारा भी कह सकते हैं।। आप मुझे कुछ कहने से क्यों चूक गए आप मुझे दोबारा भी कह सकते हैं।। मेरे क़ातिल फन के इतने शातिर हैं मुझको मैंने मारा भी कह सकते हैं।। मैं अब भी अपनी बातों पर कायम हूँ लोग मुझे ध्रुव तारा भी कह सकते हैं।। सुरेश साहनी
 जय गणेश    गणनायक स्वामी । गुण निधान गुणदायक स्वामी।। गुरु पितु मात प्राण सम तुम्हरे सकल अभीष्ट चरण में तुम्हरे मोदक प्रिय जनगण अनुगामी।। रीद्धि सिद्धि सुख देने वाले दुःख दरिद्र सब हरने वाले मूषक वाहन मनगतिगामी।। श्री गणेश उरपुर कैलाशा करत उमा शिव सहित निवासा बार बार प्रभु करहूँ नमामी ।। विघ्न हरण त्रय ताप नसावन गौरी सुत गुनग्राम गजानन सुंदर सहज नयन अभिरामी।। श्री गणेश स्तुति रचनाकार   -- सुरेश साहनी
 हम भला उसके ख़्वाब क्या जानें। इश्क़  है   इंतेख़ाब   क्या जानें।। वो निगाहें  हैं   खंजरों   जैसी खार को  हम गुलाब क्या  जानें।। हमसे पूछो शराब के मानी होश वाले शराब क्या  जानें ।। आईने में उसे निहारा था हम उसे लाज़वाब क्या जानें।। हुस्न समझे अगर जरूरी है इश्क़ वाले हिजाब क्या जाने।। हम को दुनिया हसीन लगती है हम किसी को ख़राब क्या जानें।। सुरेशसाहनी ,अदीब' कानपुर
 तुम कहते हो कुछ और लिखो आख़िर मैं ऐसा क्या लिख दूँ  जो तुम देखो तो और दिखे क्या सचमुच तुम सह पाओगे मौजूदा हाल बयानी को शायद तुमको बर्दाश्त न हो जब सच को सच मैं लिखता हूँ तब कागज जलने लगता है तब कलम हाथ की लाल सुर्ख अंगारे सी हो जाती है कहती है आज जरूरत थी यह हाथ हवा में लहराते तुम कागज और कलम लेकर कुछ झूठ सजाने बैठे हो क्या तुमको भारत का मस्तक तप रहा दिखाई देता है  क्या तुम्हें दिखा वह लोकतंत्र जो काश्मीर में बंधक है क्या तुम्हें दिखा वह संविधान फिर उसी तरह से लहूलुहान जैसे दिल्ली की गलियों से इक रोज बहादुर शाह जफर हाथों में हथकड़ियां बांधे पैरों में बाँधे ज़ंजीरें रंगून के लिए निकला था कुछ इसी तरह आज़ाद देश ने गांधी को भी मारा था अब तो इतनी आज़ादी है तुम गांधी जी का एक नहीं सौ बार खून कर सकते हो तुम फिर फिर चुप रह सकते हो फिर मत कहना कुछ और लिखो मैं लिखने को कुछ भी लिख दूँ लेकिन क्या सच सह सकते हो सुरेश साहनी, कानपुर
 अपने क़ातिल  का पता देता है। इश्क़ कब दिल का पता देता है।। आप का आज भी सुन्दर होना हुस्ने- काबिल का पता देता है।। खो गया दिल तो करे हंगामा कौन हासिल का पता देता है।। यार से जब भी कहा मिलने को यार महफ़िल का पता देता है।। इश्क़ कह देता है खुलकर वरना कौन मन्ज़िल का पता देता है।। ऐसी हालत में तबस्सुम यारब हाले-बिस्मिल का पता देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 ज़ीस्त अपनी भी खूबसूरत थी। जब मुझे आपसे मोहब्बत थी।। आज वो इश्क़ वो जुनून  कहाँ जिसलिये आपकी ज़रूरत थी।।SS
 छाँह में जलना पड़ा है  धूप में हम खिलखिलाए हमने नाहक़ छाँह के  हित मे अनेकों गीत गाये  छाँह के रिश्ते छली थे धूप में कब साथ देते छाँह में एहसास अपने एक दिन दम तोड़ देते छाँह पाने के लिए क्यों स्वर्ण-श्रम-सीकर लुटाये।। यूँ भी मृगतृष्णा दिखाई है तो चश्मा भी दिखाया मरुथलों की रेत ने ही  समय से परिचय कराया   सागरों के लुप्त मोती  मरुथलों में हमने पाये ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 मैं मुक़द्दर बना बना के थका। वक़्त क़िस्मत मिटा मिटा के थका।। आसमानों पे दाग वाले हैं चाँद चेहरा छुपा छुपा के थका।। आप नज़रें झुका झुका के थके मैं निगाहें मिला मिला के थका।। कुछ न जायेगा साथ आख़िर में ये सिकन्दर बता बता के थका।। मौत से कौन जीत पाया है जंग लश्कर जुटा जुटा के थका।। लोग सुन कर नहीं थके आदम एक किस्सा सुना सुना के थका।। सुरेश से
 तुम भी क्या क्या कह देती हो मैं भी क्या क्या सुन लेता हूँ।। इस उलझन में जाने क्या क्या ताना बाना बुन लेता हूँ।। पर मेरी निर्वाह-वृत्ति की सीमाएं भी मुझे पता है। स्वप्न बहुत हैं हम दोनों के किन्तु आय की सीमितता है।। ऐसे में इस वृत्ति कमीशन ने सपनों ही को तोडा है। हमको क्या हर मेहनतकश को कहाँ किसी लायक छोड़ा है।। दाल और रोटी रहे सलामत किसी तरह बच्चे पढ़ जाएँ। सपने पूरे हो जायेंगे बस बच्चे आगे बढ़ जाएँ।।
 लल्लो-चप्पो लिखो यही तो कविता है। सच से भागे रहो यही तो कविता है।। श्रोताओं की नब्ज पकड़ लो बेहतर है खूब चुटकुले पढ़ो यही तो कविता है।। सत्ता के विपरीत गीत न लिख देना सत्ता के संग रहो यही तो कविता है।। शोषण अत्याचार देश के हित में है मौन समर्थन करो यही तो कविता है।। अब कैसा संघर्ष सेठ मजदूरों में सुविधाभोगी बनो यही तो कविता है।।
 आप हमसे ख़फ़ा ख़फ़ा रहिये। पर ये क्या है कि दूर जा रहिये।। रूठिये  पर  हमारे  पहलू  में एक पल को भी मत जुदा रहिये।। क़त्ल करिये हमें निगाहों से काम अच्छा है मुब्तिला रहिये।। हर तवज्जह में आपके हम हों खूब ग़ैरों से आशना रहिये।। ठीक है रोज वस्ल ठीक नहीं दिल से लेकिन न अलहदा रहिये।। सुरेश साहनी
 उम्र तुझको क्या पता  दिन घट रहे या बढ़ रहे हैं। या ज़िन्दगी के कर्ज़ पर  दिन ब्याज जैसे चढ़ रहे हैं मौत है गोया महाजन  आ गयी तो ले ही जाएगी उसे जैसे किसी फरियाद से मतलब नहीं है वो नहीं सुनती सिफारिश वो नहीं देती है मोहलत वो नहीं लेती है कोई चेक कभी भी पोस्टडेटेड इसलिए तुम रोज जितना  ले रहे हो कर्ज़ उतना जोड़ कर के ब्याज प्रतिपल हो सके तो रोज भरना नेकियों के रूप में  हुंडिया अच्छाईयों की साथ रखना। सुरेशसाहनी
 खण्ड खण्ड होता रहा अपना देश अखंड। हर युग मे होते रहे जाफ़र औ जयचंद।। गद्दारों का शुरू से ओहदा रहा बुलन्द। जासूसी करते मिले सदा अच्युतानंद।।
 मैं सरकार के सेवा कार्यो का बड़ा प्रसंशक हूँ।मुझसे सरकार की आलोचना नहीं होती। एक मित्र सरकार की आलोचना कर रहे थे कि सड़कें बहुत खराब हैं। मैंने उन्हें समझाया सरकार क्या क्या करे ।कुछ आप की भी जिम्मेदारी हैं। अरे अगर हर नागरिक एक मीटर सड़क बनवाने का संकल्प कर ले तो डेढ़ लाख किमी सड़क  गढ्ढामुक्त हो सकती है। लेकिन आप केवल सरकार को कोसने लगते हैं।   उन्होंने आगे बताया कि एक प्रदर्शन चल रहा था कि शहर कूड़े का ढेर बन गया है।अब ये क्या बात हुई। अरे भाई अगर पाँच पाँच किलो कूड़ा शहर का हर नागरिक उठाये और बगल वाले शहर में फेंक आये तो अपने कानपुर से ही दो करोड़ पचास लाख किलो मतलब 25000 टन कूड़ा बगल वाले जिले में पहुंच जाएगा।और मॉर्निंग वॉक से जनता भी स्वस्थ रहेगी। इतना कूड़ा फेंकने के लिए नगर निगम 2500 गाड़ियां भी लगाए तो उसे प्रतिदिन पांच चक्कर लगाने पड़ेंगे और एक लाख लीटर डीज़ल फूंकेगा सो अलग। अभी मैं उनके दिव्य ज्ञान से चकित होने की सोच ही रहा था कि उन्होंने एक और बात बताई। भैया! अभी तो भारत की तैयारी है कि वो अपना चन्द्रयान है ना उससे सारा कूड़ा हम लोग चन्द्रमा पर डाल आया करेंगे। उससे ...
 सिर्फ़ मरमर का बदल बोलोगे। कब मुझे ताजमहल बोलोगे।। क्या दिखे है तुम्हें इन आँखों मे झील है या कि कंवल बोलोगे।। प्यार के बोल सुना दो जानम आज बोलोगे कि कल बोलोगे।। रूप कहते हो गुलाबों जैसा रंग केसर की फसल बोलोगे।। चुप रहोगे तो यक़ी है लेकिन तुम जो छलिया हो तो छल बोलोगे।। मुझको होठों पे सजा कर देखो जब भी बोलोगे ग़ज़ल बोलोगे।। सुरेश साहनी,कानपुर
 मेरी घटिया किन्तु मंचीय कविता आपके अवलोकनार्थ- आम आदमी में जो एलिट क्लास बना है|    चोरी की कविता से कालिदास बना है|| जली झोपड़ी तब उनका आवास बना है| इसी तरह से वर्तमान इतिहास बना है|| चोरी,डाका,राहजनी,हत्या ,घोटाला, इस क्रम से परकसवा श्रीप्रकाश बना है|| बिरयानी के साथ रिहाई मांग रहा है, न्याय व्यवस्था का कैसा उपहास बना है|| कौन मिलाता है केसर,असगंध ,आंवला, घास फूस से मिलकर च्यवन पराश  बना है|| जूता-चप्पल ,गाली-घूंसा ,मारा-मारी, लोकतंत्र का  संसद में बनवास बना है|| संसद है ये,जंगल  है या कूड़ाघर है, या असीम के शब्दों में संडास बना है|| बलवंत सिंह हो या अफजल हो ,या कसाब हो,  हर चुनाव इनकी फांसी में फाँस बना है||
क्यों री छलना कब सुधरेगी। सदा रहेगी दुःख प्रदायिनी या अपनी भी पीर हरेगी।।क्यों री छलना गागर गागर प्यास सम्हाले अँजुलि भर पानी के प्याले क्या इतने से प्यास बुझेगी।।क्यों री छलना  खेला  खाया  सोया जीवन कुछ पाया कुछ खोया जीवन अकथ कहानी यही रहेगी।।क्यों री छलना यह प्रवंचकारी क्रीड़ायें कुछ खुशियाँ अगणित पीड़ायें मैं भोगूँ तू मौन रहेगी।। क्यों री छलना 16/09/16
 अगरचे वो लिखें तो सब सही है। जो हमने लिख दिया झूठी बही है।। कि उनके झूठ भी वैदिक वचन हैं हमारी बात ठठ्ठा बतकही है।।
 मची  कचौंधन कांव कांव है। शायद   जल्दी ही चुनाव है।। इसीलिए तो  गहमागहमी चिल्लमचिल्ली  गांव गांव है।। लट्ठ चलाना ,जेल भेजना सत्ता पर  कितना दबाव है।। जनता को  हर दर्द  भुला दे आश्वासन  ऐसा  पुलाव है।। दिन पर दिन दुख सहते रहना जनता का ये ही स्वभाव है।। नेताओं के सुख का कारण जनता के बढ़ते अभाव है।। यार  यही तो  राजनीति है तुम  कहते हो  भेदभाव है।। सुरेश साहनी
 सहमी सी बोल उठी किसलय अलि कितने हो पाषाण हृदय  दिखने में कृष्ण सदृश लेकिन गतिविधियों से क्यों लगे अनय।। कल मुझ पर थे अनुरक्त हुए अब उस पर जाकर रीझ गए खुद चला गगरिया पर गुलेल खुद हँसे और ख़ुद खीझ गए हो निलज ढीठ नटखट निर्भय।। पनघट से घर जाऊँ कैसे बिसरी गागर पाऊँ कैसे क्यों हुई चुनरिया दागदार बाबुल को बतलाऊँ कैसे कैसे सीखूँ अभिनय अन्वय।। SS
 अपने किसी को हक़ से बुलाऊँ तो किस तरह। अपने बिके मकान में जाऊँ तो किस तरह।।  हैं रोशनी से कम नहीं यादें विसाल की इस तीरगी में उसको भुलाऊं तो किस तरह।।  तुमसे बिछड़ के जैसे में ख़ुद से बिछड़ गया ख़ुद के करीब ज़िन्दगी आऊँ तो किस तरह।। अरसा हुआ में नींद से मिलने नहीं गया ख़ुद के लिए मैं लोरियाँ गाउँ तो किस तरह।। कांधे बिठा के बाप ने जो कद मुझे दिया फिर से उसी मेयार को पाऊँ तो किस तरह।। खुल कर के हँसना छोड़िये रोना भी गुम हुआ अब फूट फूट  ख़ुद को रुलाऊँ तो किस तरह।। मतलबपरस्त दौर में रिश्ते कहाँ बचे ख़ुद रूठ जाऊँ खुद को मनाऊँ तो किस तरह।। सुरेश साहनी, कानपुर सम्पर्क 9451545132
 इश्क़ पर से अब यक़ी जाता रहा। हुस्न रह रह कर के भरमाता रहा।। मन को बच्चे सा हुलसता देखकर वक़्त रह रह कर के दुलराता रहा।। एक था मजबूत दिल इस जिस्म में  जाने कैसे डर से घबराता रहा।। वो भी झूठे ख़्वाब दिखलाते रहे मैं भी अपने दिल को समझाता रहा।। हद तो है उसकी ख़ुशी के वास्ते अपने दिल के दर्द झुठलाता रहा।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 भूख को जज़्बात से मत तौलिये। वक्त को हालात से मत तौलिये।। प्यार होता है तो होने दीजिये दिल्लगी को जात से मत तौलिये।। दिल तो क्या है जान भी दे देंगे हम अब हमें इस बात से मत तौलिये।। छप नहीं पाती कई खबरें  यहाँ सच को अखबारात से मत तौलिये।। कितने ऊँचे कद यहॉं गुमनाम हैं कद को झंझावात से मत तौलिये।। ये भी हो सकता है वो निर्दोष हो सिर्फ इल्ज़ामात से मत तौलिये।। आप भी क्या सोच रखते हैं अदीब नेकियाँ औकात से मत तौलिये।। सुरेश साहनी, कानपुर
 भूख की ख़ातिर जियाले बिक गये। पेट पर  पांवों के छाले   बिक गये।। एक सच्ची ख़बर छपने से रही झूठ के डाले मसाले बिक गये।। कोई कब तक तक ज़िन्दगी से जूझता जबकि सारे साथ वाले बिक गये।। तीरगी तो अब भी अपने साथ है सिर्फ़ किस्मत के उजाले बिक गये।। होटलों में बिक गयीं कुछ अस्मतें या कि कुछ ईमान वाले बिक गये।। धर्म खातों से जुडी थी मण्डियां यूँ गरीबों के निवाले बिक गये।। सब कमाई लुट गयी अपनी अदीब कौड़ियों में जब रिसाले बिक गये।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 यही सोचकर टांग सभी ने तोड़ी है। कविता लिखना गोया हलवा पूड़ी है।। खाली पीली का सम्मान बुरा है क्या कवि कहलाने पर कुछ बंधन थोड़ी है ।। लय मिल जाने पर हम है डर्बी वाले नहीं मिले तो समझो लँगड़ी घोड़ी है।। सत्ता से विद्रोह करे वो कवि कैसा कवि की मन्ज़िल अब सत्ता की ड्योढ़ी है।। अंतरात्मा है तो घर मे धरि आओ ऐसे कवि की किस्मत बड़ी निगोड़ी है।। बेहतर है कवि गूंगा  श्रोता बहिरे हों सफल यही तो राम मिलाई जोड़ी है।। राजा आन्हर चाटुकार कवि भाट हुआ कैसे बोलें एक अन्धा एक कोढ़ी है।। कवि थे जो धाराये मोड़ा करते थे भाटों ने धारा में कविता छोड़ी है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जब किसी ने दिन बिताया धूप में। तब शज़र का ज़िक्र आया धूप में।। कौन खाता उसकी हालत पे रहम देर तक था एक साया धूप में।। सारे अफ़सर आप बैठे छाँव में और बच्चों को बिठाया धूप में।। दर्द दहकां का हमें मालूम हो हमने यूँ ख़ुद को तपाया धूप में।। एक सूरज आसमां में जल उठा एक गुल जब खिलखिलाया धूप में।।  वक़्त मत बरबाद करिये छाँव संग जिसने है जो कुछ बनाया धूप में।। छाँह वाले काम आ सकते थे पर हमने ख़ुद को आज़माया धूप में।। सुरेश साहनी,कानपुर
 ज़िन्दगी के दिन सुहाने खो गये। मस्तियों के बारदाने खो गये।। छुट गए साथी पुराने खो गए। मेरे बचपन के तराने खो गए।। कारोबारे-रंज़ो-ग़म के दौर में कैफ़ वाले कारखाने खो गये।।  सच मे नकली कहकहों के दौर में अस्ल खुशियों के ख़ज़ाने खो गए।। आदमी बेज़ार है जाये कहाँ प्यार वाले आस्ताने खो गये।। अजनबी रिश्ते यक़ी लायक नहीं राब्ते  सारे  पुराने  खो गये।।  जब से दीवारों ने आँगन गुम किये गाँव आने के बहाने खो गये।। सुरेश साहनी, कानपुर
 उसने जब पैरहन उतार दिया। अस्ल क़िरदार को उघार दिया।। सिर्फ़ अपने लिये किया सब कुछ मुल्क का क्या बना संवार दिया।। ज़िन्दगी हाट की ज़रूरत है मौत ने भी तो कारोबार किया।। मौत के साथ चल दिये बेदिल ज़ीस्त ने जबकि इंतज़ार किया।। ज़िस्म का ब्याज जोड़ने वालों आप ने कब हमें उधार दिया।। हम तो हम थे सफेद कालर जी किसने पेशे को शर्मसार किया।।
 थे हृदय में भाव अगणित और हम कुछ कह न पाये। गात काँपा कण्ठ रुन्धा होठ केवल थरथराये।। और हम....SS तुम मेरे सबसे सगे थे क्यों लगे इतने पराए।।और हम कुछ कह न पाए।।
 हमारा साथ भले उम्र भर रहे न रहे। मेरी दुआओं में इतना असर रहे न रहे।। मैं हर कदम पे तुम्हे रास्ता बताऊंगा ये और बात कि तुम को खबर रहे न रहे।। तुम्हे भी हुस्न पे इतना गुरुर ठीक नहीं ये जिस्म क्या है किराये का घर रहे न रहे।। पैकरे-फ़ानी को भी फ़िक्र हैं तो किसकी है ये घर मकान ये जमीनों-जर रहे न रहे।। परिंदे रोज ठिकाना नया बदलते हैं वो जानते हैं कि कल ये शजर रहे न रहे।। इन निगाहों में रख मुकाम रास्ते को नहीं बदलते वक्त में ये रहगुजर रहे न रहे।। राब्ता कौन किसी खण्डहर से रखता है भिखारियों का भी आना उधर रहे न रहे।। मेरी मजार बनाओ  मेरे रकीबों में कि मेरा  चाहने वाला  इधर रहे न रहे।। अब न तो इश्क पे बंदिश न हुस्न का पर्दा खुदा रहम करे उसका भी डर रहे न रहे।। सुरेशसाहनी, कानपुर  सम्पर्क- 9451545132
 किस तरह तुम उभय पक्ष साधे रहे। इस तरफ उस तरफ आधे आधे रहे।। तुमसे अच्छे रहे अर्ध नारीश्वर तुम न मीरा बने तुम न राधे रहे।। तुम मदारी हुए फिर भी पुतली रहे किसके कहने पे बस कूदे फांदे रहे।। तुममे काबिलियत है कोई शक नही झूठ कह कह के मजमे तो बांधे रहे।। हम निरे भक्त के भक्त ही रह गए जो कि तुझ से छली को अराधे रहे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 राह में शामो- सहर करते हो तुम। किसलिए इतना सफ़र करते हो तुम।। किसके ग़म में जल रहे हो अनवरत किस की ख़ातिर दिल दहर करते हो तुम।। सर्दियों में हो ठिठुरते जिस्म से गर्मियों में क्यों ग़दर करते हो तुम।।  इस तरह खानाबदोशी ओढ़कर ख़ुद को क्योंकर दरबदर करते हो तुम।। तुमको आलस क्यों नहीं छूता अदीब क्यों नहीं कुछ ना नुकर करते हो तुम।। Suresh sahani, Kanpur
 ऐ ख़ामोश कलम कोई कविता तो लिख वक़्त हो गया आवाज़ों के उठने का सन्नाटों के बहरेपन को क्या सहना मौका है हालातों पर फट पड़ने का
 #वेदना- मन उपवन में कुसुम खिले थे मुरझाये तो गीत बन गए। नयनों में कुछ स्वप्न तिरे थे छितराये तो गीत बन गए।।   अलसाया सा यौवन तेरा अधनिंद्रा में मेरी आँखें स्मित में आमन्त्रण पाकर उम्मीदों ने खोली पाँखें बहके बहके कदम हमारे चल न सके तो गीत बन गए।।मन उपवन... आजीवन भटका मैं जैसे कोई जोगी या बंजारा किंतु मुझे क्या जाना तुमने कोई भँवरा या आवारा यायावर के जख़्म किसी ने सहलाये तो गीत बन गए।।मन उपवन.... तुमको मैंने कदम कदम पर समय समय पर दिया सहारा प्रतिउत्तर में मिली निराशा जब भी मैंने तुम्हें पुकारा यह पीड़ा शब्दों में गढ़ कर जब गाये तो गीत बन गए।।मन उपवन.... आशा थी तुमसे मिलने की अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर किन्तु तुम्हारी हठधर्मी से हर उत्कंठा रही निरुत्तर सद्य प्रतीक्षित प्रश्न बावरे अकुलाये तो गीत बन गए।।मन उपवन.... सुरेशसाहनी
 मेरा इतना अच्छा होना ठीक नहीं । उसका भी हम जैसा होना ठीक नहीं ।।   अपने और पराए  वाली  दुनिया में बोझ सरीखा रिश्ता होना  ठीक नहीं ।। जाने किस दुनिया मे  खोए रहते हो इतना भी सपनीला होना ठीक नहीं ।।  बेमतलब है दवा समय के बाद मिले  इंतज़ार का लंबा होना ठीक नहीं ।।  दर्द बहुत होगा रिश्तों की तल्खी में अपनो का अनजाना होना ठीक नहीं ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ज़िन्दगी फिर रूबरू होंगे सुबह तब तलक जाकर कहीं आराम कर।। कुछ नहीं तो  हसरतों  को नींद दे हो सके कुछ ख़्वाब मेरे नाम कर।। या मेरी नाकामियों को काम दे या मेरी नाकामियां नाकाम कर।। या तो आसां कर मेरी दुश्वारियाँ  या मेरी कोशिश को मत बदनाम कर।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 कि ग़म में मुस्कुराना आ गया है। हमें ख़ुद को सताना आ गया है।। तड़प है इश्क़ की बुनियाद गोया तो तड़पाओ यगाना आ गया है।। हमारा दिल जलाओ बुझ न जाये तुम्हें बिजली गिराना आ गया है।। अगरचे रूठना है रूठ जाओ हमें भी अब मनाना आ गया है।। कहाँ जायें न सोचे अहले महफ़िल हमें दुनिया से जाना आ गया है।। अभी रुकते हैं शायद ज़िन्दगी में मुहब्बत का फसाना आ गया है।। चलो फिर इश्क़ का परचम उठा लें अदूँ अपने ज़माना आ गया है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ख़ाक में मिल गए नगीने सब। रोशनी में हैं अब कमीने सब।। और हम इन्तजार क्या करते चुक गये साल दिन महीने सब।। जिसकी ख़ातिर कमा के रखना था शुक्र है ले लिया उसी ने सब।। जिनको लगता था हैं वो दौरे- ज़मां एक एक कर हुए करीने सब।। जाने कैसे जहाज डूब गए पार  होते रहे  सफीने सब।। हमने माना गुनाह माफ हुए क्या चले जायेंगे मदीने सब।। सुरेशसाहनी
 सोते जगते एक ग़ज़ल लिख लेता हूँ। अब मैं हर मुश्किल का हल लिख लेता हूँ।। अग़र झोपडी है तो मंदिर लिखता हूँ ताजमहल को ताजमहल लिख लेता हूँ।। होठ तुम्हारे पंखुड़ियों के जैसे हैं चेहरा तेरा खिला कँवल लिख देता हूँ।। यह सच है कि मैं तेरा दीवाना हूँ तुम कहती हो तो पागल लिख देता हूँ।।  एक न एक दिन यह इतिहास बनेगा ही जिस पल प्यार हुआ वह पल लिख देता हूँ ।। प्यार में नम आँखों से  मोती गिरते हैं मैं तो उनको गंगाजल लिख देता हूँ।। और यूँही कागज़ के सूखे सीने पर मैं अक्सर बनकर बादल लिख देता हूँ।। 13/09/16 कॉपीराइट@सुरेश साहनी
 ज़िन्दगी कुछ तो बताती चल। या हँसा दे या रुलाती चल।। सब दिया है पर शिकायत है क्या कमी है ये बताती चल।। बोझ बासी हो गए सम्बन्ध नित नए रिश्ते बनाती चल।। सादगी में दाम घटते हैं ऐंठती या भाव खाती चल।। फेल हैं तो पास भी होंगे तुझको हक है आज़माती चल।। प्रेम का क्या मोल मिलता है कौड़ियों में ही लगाती चल।। सुरेशसाहनी
 प्रिय मित्र राम सागर जी के निधन पर :- तुम क्यों ऐसे चले गये प्रिय। लो हम फिर से छले गए प्रिय।। बुरे बुरे    सब यहीं  डटे हैं जो थे अच्छे भले गए प्रिय।। तुम समाज के प्रति अधीर थे दो दिन आये मिले गए प्रिय।। ज्यूँ सागर में   राम समाये तुम अनन्त में चले गए प्रिय।। यदि यूँ ही आहत करना था फिर क्यों मिलकर गले गए प्रिय।।
 दिल के जख्मों को सजाना खल गया। उनको मेरा मुस्कुराना खल गया।। कल जिन्हें था उज़्र मेरे मौन पर आज हाले-दिल सुनाना खल गया।। उनसे मिलने की खुशी में रो पड़ा पर उन्हें आँसू बहाना खल गया।। उसकी यादेँ, उसके ग़म ,तन्हाईयां उसको मेरा ये खज़ाना खल गया।। चाहता है  ये शहर  हम छोड़ दें क्या उसे मेरा ठिकाना खल गया।। उसको मेरी चंद खुशियां खल गयीं उसको मेरा आबोदाना खल गया।। आख़िरश उसको ज़नाज़े में मेरे इतने सारे लोग आना खल गया।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 तू मेरे जीवन का कल है। किसलिए आज मन बेकल है।। जो स्वप्न दिखे थे बिखर गये अब स्मृतियाँ भी शेष नहीं थी लिखी बहुत कविता तुम पर उनकी प्रतियाँ भी शेष नहीं मत पूछो मन पनिहारिन से क्या फूटी गगरी में जल है।। वैसी भी अब इस जीवन का कितने दिन यहां ठिकाना है मुझको तुमसे क्या पाना है तुमको भी क्या मिल जाना है फिर नयन कोर क्यों भीगे हैं किसलिए आज मन विह्वल है।। है पुनर्जन्म तो चलो कभी  फिर से मिलना जुलना होगा यदि विधि अपने अनुकूल रहा पूरा निश्चित सपना होगा पर आज उसी का सब कुछ है जिसने वारा मुझ पर कुल है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 हिंदी को कमजोर बताने वाले बहुत  हैं| वे इसी में खुश हैं की हिंदी को बेचारी,कमजोर ,जीविका हीन  भाषा बताकर हिंदी भाषियों पर एहसान कर दिया| उन्हें अपने वक्तव्य पर ताली सुनकर गर्वानुभूति होती है|होनी भी चाहिए|आखिर वे जस्टिस काटजू के अनुयायी जो ठहरे|उन्होंने पोस्ट बॉक्स का अनुवाद पत्रघुसेड़ लिखा था| जबकि पत्र-पेटी,पत्र-पेटिका या पत्र-मञ्जूषा जैसे अनेक विकल्प थे|ऐसे हिंदी के शुभ चिंतकों से ही हिंदी का उन्नयन होना है तो राम बचाए|हिंदी में मूल शब्द पचास हज़ार से अधिक हैं जबकि अंग्रेजी में मात्र दस हज़ार मूल शब्द हैं|भाषा की मजबूती उसकी शब्द संख्या -बल है|अंग्रेजी या अंग्रेजों ने विदेशी भाषाओँ से शब्द ग्रहण किये|आज उनके पास भारतीय भाषाओँ के लगभग एक लाख शब्द हैं|उनका शब्दकोष छः लाख के करीब है|हम हिंदी को सरल और सुग्राह्य बनाने की बजाय शुद्ध और क्लिष्ट करने में उर्जा व्यय कर रहे  हैं|मैं हिंगलिश को या उनके पैरोकारों को धन्यवाद देता हूँ की वे हिंदी को सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय भाषा बना रहे हैं|मैं उर्दू का, भारतीय सिनेमा का भी  ऋणी हूँ की उन्होंने हिंदी को लोकप्रिय बनान...
 खटखटाया द्वार कितनी बार मैंने। पर न पाया प्रेम का आगार मैंने।। विश्व सारा कोई अपरम्पार मेला भीड़ इतनी और मैं कितना अकेला क्यों अकेलापन किया स्वीकार मैंने।। हाँ प्रतीक्षा की घडी कितनी बड़ी थी रात जैसे प्राण लेने पर अड़ी थी कष्ट झेले पर न मानी हार मैंने।।  मत कहो संदेह में जीता रहा हूँ बस तुम्हारे नेह में जीता रहा हूँ तुझमे देखा है मेरा संसार मैंने।। सुरेशसाहनी
 वाकई मुश्किल घड़ी है क्या करें। भाँग कुएं में पड़ी है क्या करें।। आदमी की जान सस्ती हो गयी सिर्फ महंगाई बढ़ी है क्या करें।। हम युवा उम्मीद ताज़ा दम भी हैं पर व्यवस्था ही सड़ी है क्या करें।। किस तरह हो मुल्क में चैनो-अमन जंग आपस में छिड़ी है क्या करें।। मुल्क़ क्या सुधरेगा गर सरकार ही न सुधरने पर अड़ी है क्या करें।। एक मेरे खटिया बिछाने से तेरी खाट हो जाती खड़ी है क्या करें।। गर तुझे विश्वास है तो संग रह शर्त थोड़ी सी कड़ी है क्या करें।।
 तो किसपे जान लुटाता मैं किस पे मर जाता। बहार चार सू पसरी थी मैं   किधर   जाता।। वो इक निगाह जो  हर शख़्स पे करीम हुई हमारे इश्क़ पे पड़ती तो मैं संवर जाता।। मैं आफताब न था ताबदार था लेकिन मेरी सुआओं में जलवा तेरा निखर जाता।। किसे कुबूल थी हस्ती बग़ैर यारब के बहुक़्म यार के खुद ही बिखर बिखर जाता।। हमें जो इश्क़ का मज़हब कोई बता देता तो हँसते हँसते मैं ये भी गुनाह कर जाता।। Suresh Sahani, Kanpur
 मुझे भी अब नहीं पहचानता है। यकीनन वो बड़ा तो हो गया है।। अगर कुछ दे सको तो साथ आओ यही अब दोस्ती का फलसफा है।। कभी दिल में मेरे  रहता था लेकिन इधर वो कुछ दिनों से लापता है।। हमारा घर बहुत छोटा है तो क्या हमारा दिल बहुत ज्यादा बड़ा है।। वही कहते हैं जो दिल सोचता है वही करते हैं जो दिल चाहता है।। सुरेश साहनी , कानपुर
 बातें  करते करते  बहका करता है। अल्ला जाने क्या क्या सोचा करता है।। मैं उसको अपने सीने में रखता हूँ इधर उधर तो वो ही भागा करता है।। शायद उसको भी दिल की बीमारी है गुमसुम खुद में खुद को खोजा करता है।। मुश्किल है वो इसके फल खा पायेगा बूढ़ा जो पेड़ों को सींचा करता है।। सब कहते हैं कोई काम नहीं करता ख़ाली बैठे बैठे कविता  करता है।। आख़िर उसने कुछ तो पाप किये होंगे क्या कोई नाहक़ ही तौबा करता है।। कितना दूर रहें कैसे इंकार करें वो ख्वाबों में भी आ जाया करता है।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 ज़ंगे सियासत ही दिल्ली में होती है। ज़ंगे हक़ीकत गांव गली में होती है।। महल किले बनने से ही सन्नाटे हैं गम्मज तो झोपड़ पट्टी में होती है। जितने नेता है मजदूर किसानो के इनकी बैठक कब बस्ती में होती है।। अब गरीब गुरबों से ये घबराते हैं इसीलिए मजलिस दिल्ली में होती है।। एक बीज से अगणित बीज बनाती है यह ताकत केवल धरती में होती है।। मजलूमों की चीखपुकारें  कौन सुने सख़्त सुरक्षा हर कोठी में होती है।।
 चुटकी चुटकी उम्मीदों पर अँजुरी भर आश्वासन देना प्रियतम तुम भी सीख गए हो  पीएम जैसा भाषण देना।।SS
 भईया दिल्ली में रहते हैं। जहाँ आदमी कम रहते हैं।। भइया बड़े मिनिस्टर भी हैं बड़े बड़े वादे करते हैं भोली  जनता के सपनों से ऐसे ही खेला करते हैं पर धन्ना सेठों के दुख सुख- में शामिल हरदम रहते हैं।। भईया... झोंपड़ियों को रोशन करने की भईया बातें करते हैं यूँ बस्ती में आग लगाकर राजनीति सेंका करते हैं उन्हें पता है किसके पैसे कैसे कहाँ हज़म करते हैं।। भईया.... भैया जिम्मेदार कहाँ थे आज मगर हम है अचरज में दो दो नई भाभियाँ रख ली  हैं भौजाई के एवज में भौजाई के साथ गांव में जाने कितने ग़म रहते हैं।। भइया.... चुटकी चुटकी उम्मीदों पर अँजुरी भर आश्वासन देना भईया जी अब सीख गए हैं  पीएम जैसा भाषण देना।। उनकी शतरंजी चालों में कितने पेंचों- ख़म रहते हैं।। भईया... सुरेश साहनी, कानपुर
 तुम्हें मालूम है जब बढ़ते दमन के खिलाफ़  मैं कुछ नहीं कर पाता  तब  कविताये लिखता हूँ रेत में सिर धँसाये शुतुरमुर्ग की तरह. आने वाले खतरों से  अनजान बनने की आख़िरी कोशिश  राहत तो देती है कल अपनी बारी आने तक..... *सुरेश साहनी
 फिर फिर सम्हालता रहा फिर भी बिखर गया। वो ख़्वाब था जो नींद में आकर गुज़र गया।। टूटी कगार उजड़े हुए घर गिरे दरख़्त सैलाबे-इश्क़  जैसे भी उतरा  उतर गया।। उम्मीद थी कि ज़िन्दगी आएगी एक दिन इतना पता है  कोई  इधर से उधर  गया।। दुनिया को जीतने की तमन्ना निकाल दे दुनिया वहीं है देख सिकन्दर किधर गया।। हुस्ने सियाह पर जो नज़र कैश की पड़ी लैला भी कह उठी कि मुक़द्दर सँवर गया।।
 माना हम नाक़ाबिल निकले। तुम भी तो पत्थरदिल निकले।। ग़ैरों पर शक़ टूट गया जब तुम ही मेरे क़ातिल निकले।। दिल की बातें क्या सुनते तुम  तुम तो बुत से बेदिल निकले।। उम्मीदों के चाँद सितारे अक्सर धूमिल धूमिल निकले।। दुनिया से लड़ सकता था मैं लेकिन तुम ही बुज़दिल निकले।। ग़म में यूँ हँस पड़े ठठाकर वक़्त मेरा क्यों बोझिल निकले।।   शायद आगे निकल गए हम पीछे अपनी मंज़िल निकले।। क्यों ना हल होती हर मुश्किल हम उलझन से हिलमिल निकले।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तीरगी गा रही है राग नये। ख़ुद जलें या कि लें चिराग़ नये।। मौत की ज़िंदगी है विधवा सी ज़ीस्त बदले है नित सुहाग नये।। रोज़ हम ढूंढते हैं अपने को रोज़ मिलते हैं कुछ सुराग नये।। लाख उजले कफ़न में लिपटे हम ज़ीस्त  देती रहेगी दाग नये।। कूढ़मग़ज़ों से हैं ज़हाँ आजिज ले के आ दिल नये दिमाग नये।।
 मैं ख़ाकसार हूँ  मुझसे मेरीअज़मत मत पूछ। मैं आहदार हूँ कमज़ोर हूँ  ताक़त मत पूछ।। मैं पायदान हूँ बुनियाद की ज़रूरत भी तू बुलन्दी पे है जर्रे की हैसियत मत पूछ।। खामोशियों के शहर में सभी बराबर हैं सुरेश अब यहाँ छोटी बड़ी तुर्बत मत पूछ।। सुरेश साहनी
 वो मेरा अपना भी कब था। या अपनों जितना भी कब था।। उसकी याद हमें झिंझोड़े उसने यूँ चाहा भी कब था।। बुरा किसी को क्या कहना पर वो इतना अच्छा भी कब था।। मैं उससे नफ़रत क्यों पालूं उसने प्यार किया भी कब था।। उसके ख़्वाबों में क्यों जायें वो मेरा सपना भी कब था।। तुमको रहना है तो बोलो मेरा दिल टूटा भी कब था।। प्यार मुहब्बत भी ना समझे दिल इतना बच्चा भी कब था।। Suresh Sahani, कानपुर
 स्वच्छन्द रहे वह कविता है निर्बाध बहे वह कविता है जैसे इक नदिया बहती है या बासंती मदमस्त हवा अवसर आने पर सावन में झूलों पर हमें झुलाती है नटखट पन पवन झकोरों का जब अपनी रौ में आता है तब जाड़े की शीतलहर बनकर वह इतनी हाड़ कँपाता है इतनी जिससे कि दो प्रेमी आपस का अंतर खो बैठे इतनी की नदी अपनी रौ में धीरे धीरे बहते बहते जाकर सागर में मिल जाये सागर से मिलने को आतुर निर्बाध नदी को बहने दो कविता ऐसी ही रहने दो सुरेश साहनी
 इक बार तो ये हाथ मेरे हाथ में रक्खो। फिर जाओ जिसे चाहो उसे साथ में रक्खो।। वैसे तो मुलाक़ात की बंदिश नहीं लेकिन रस्मे-रहे-दुनिया भी खयालात में रक्खो।।  अश्कों से मेरे उज़्र है तो ऐसा करो तुम अब अगली मुलाक़ात को बरसात में रक्खो।। रुसवाई का डर है तो मेरा नाम न लेकर मुझको भी ख़्वातीन-ओ- हज़रात में रक्खो।। ये क्या है कि खुद तो रहो कश्मीर में जाकर मुझको कभी गोआ कभी गुजरात में रक्खो।। दिन में तुम्हें फुरसत न मिली है न मिलेगी ख़्वाबों में सही साथ मुझे रात में रक्खो।। तुम हुस्न हो मैं इश्क़ हूँ ये फ़र्क़ है हममें पर दिल की लगी को तो मसावात में रक्खो।। सुरेश साहनी, कानपुर।
 प्रणय नौका का क्षितिज से पार होना तय हुआ। ओ मेरे नभ लो मेरा आधार  होना तय हुआ।। तय हुआ अब मेरे स्वप्नों का चितेरा तय हुआ मेरे मन मंदिर में हो किसका बसेरा तय हुआ तय हुआ अलि कलि मिलन श्रृंगार होना तय हुआ।। तय हुआ हर वर्जना के टूट जाने का समय अब नहीं है दर्प रखने या लजाने का समय  एक बंधन अंक का स्वीकार होना तय हुआ।। हाँ मनोरथ था हमारा साथ नव संसार का प्रेम से विश्वास से पूरित भरित घरबार का गात प्रणयाकुल हुए अभिसार होना तय हुआ।।
 कहाँ की बात कहाँ पर उठा दिया तुमने। खुशी के जश्न में आकर रुला दिया तुमने।।  उसे गए हुए वैसे तो इक ज़माना हुआ उठा के जिक्र उसे फिर ज़िला दिया तुमने।। कुरेद कर के सभी जख़्म कर दिए ताज़े दवा के नाम पर यह क्या पिला दिया तुमने।। सियासतों की बीमारी तुम्हे कहाँ से लगी किसे हवा दी और किसे बुझा दिया तुमने।। मुझे यकीन था इक तेरी आदमियत पर मेरे यक़ीन को क्यों कर मिटा दिया तुमने।। सुरेश वक्त वो अब फिर कहाँ से लाओगे जिसे कि बैठकर यूँही गँवा दिया तुमने।। सुरेश साहनी
 तुमसे चलकर न आया गया। मुझसे उठकर न जाया गया।। ग़ैर इसपर रहे खुशफहम फासला ना मिटाया गया।। मौत क्या है न मुझको पता ना किसी से बताया गया।। एक परदा रहा दरमियाँ उम्र भर जो निभाया गया ।। मेरी चाहत में तासीर थी दूर उनसे न जाया गया।। आज जाकर मुझे घर मिला जीते जी ना बनाया गया।। दूर जाकर किसे ढूंढते तुमको दिल में ही पाया गया।। और भी याद आने लगे जब भी तुमको भुलाया गया।। यार के संग आके मुझे कब्र में भी जलाया गया।। सुरेश साहनी,कानपुर
 श्रद्धांजलि- आज़ाद कानपुरी ग़ज़ल का एक सितारा चला गया यारों। अदबगरों का सहारा चला गया यारों।। गया तो लालमन आज़ाद कानपुर वाला क्यों सब कहे हैं हमारा चला गया यारों।। कोई कहे है कि सूरज चला गया कोई कहे है नूर ही सारा चला गया यारों।। वो इक सदा थी जो जाती थी कहकशाओं तक वो कहकशाओं का प्यारा चला गया यारों।। मुहब्बतों के लिए था गज़ब का मीठा वो अनाओं में था जो खारा चला गया यारों।।  सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 हाँ में हाँ ही न मिलाते रहिये। मेरी कमियाँ भी बताते रहिये।। मौत ख़ामोश करेगी बेशक़ ज़ीस्त तो गीत है गाते रहिये।। साथ कोई नहीं रोने वाला इसलिए हँसते हँसाते रहिये।। ज़िन्दगी छीन न ले बेवज़नी दर्द के बोझ बढाते रहिये।। हर घड़ी ताजगी रखिये रुख पर प्यार के फूल बिछाते रहिये।। आपकी फैन रहेगी दुनिया कुछ नया रोज सुनाते रहिये।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 चाहने वाले हमें पीर समझ बैठे हैं। हमको उम्मीद की जागीर समझ बैठे हैं।। हमने सोचा था उन्हें प्यार का आलम्बन दें पर मेरा हाथ वो जंजीर समझ बैठे हैं।। उस हसीना-ए-तसव्वुर के कई हैं आशिक  लोग जिसको मेरी ताबीर समझ बैठे हैं।। अब कोई कैसे बताये कि हकीकत क्या है सब हमे राँझा उसे हीर समझ बैठे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 और कितना वो आजमाएगा। इश्क़ इक दिन तो रंग लाएगा।। रूठता है तो रूठ लेने दो तंग आकर वो  मान जाएगा।। उसके आंसू खुशी के होते हैं दर्द होगा  तो   मुस्कुराएगा ।। प्यार अपनो का लूटकर कैसे इतनी नफरत सम्हाल पायेगा।। ले मेरा दिल तुझे दिया मैंने कौन इतना तुझे मनाएगा।। सुरेश साहनी,कानपुर
 बेशक़ सर पे ताज़ न देना। शाहाना   अंदाज़  न  देना।। और जुबां से तल्खी झलके मुझको वो आवाज़ न देना।। छोटे से घर के मालिक को दिल देना मुमताज़ न देना।। नाहक़ उलझन बढ़ जाएगी अपने दिल के राज न देना।। आसमान कम पड़ते हैं तो पंछी को परवाज़ न देना ।। रहने देना दिल ही दिल को दिल को नामे-साज न देना।। उल्फ़त के अंजाम सुने हैं उल्फ़त के आगाज़ न देना।। साँसें तक गिरवी हो जाएं ऐसा हमें सुराज न देना।। सुरेश साहनी, कानपुर
 आयी गयी बिताई बातें। आज पुनः याद आयी बातें।। आंखों के कोरों से टपकी कितनी छुपी छुपाई बातें।। महफ़िल में रुसवा कर बैठीं ऐसी थीं हरजाई बातें ।। बचपन की सोंधी बातों की करती रहीं बड़ाई बातें।। बेसिरपैर हुआ करती हैं अक्सर सुनी सुनाई बातें।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अब कविता लिखने में झिझकता हूँ जाने कैसे मेरी बेरंग कविताओं में लोग रंग ढूंढ़ लेते हैं। और वे रंग भी अलग अलग निकलते हैं। भगवा,नीला,लाल हरा और भी न जाने कैसे कैसे फिर रंग से बना देते हैं न जाने क्या क्या जैसे- बिरादरी, पार्टी,फिरका ,मजहब  या फिर कोई देश ऐसे में बस एक विकल्प बचता है  सादा छोड़ देते हैं कागज़ शायद कबीर भी रहे होंगे मेरी परिस्थितियों में, तभी तो उन्होंने कहा है- मसि कागद छुयो नहीं......... एक पुरानी कविता
 माटी के घर मड़ई, घोटठा घारी का। दौर गया सब बाग बगइचा बारी का।। आज रोशनी दूर कहीं से आती है दौर गया दीया, ढिबरी अगियारी का।।
 ये खुशी बेहिसाब है गोया। उससे मिलना सबाब है गोया।। उस तबस्सुम का क्या कहें वल्लाह मेरे ख़त का जवाब है गोया।। उसकी आंखें हैं दो कंवल जैसे और चेहरा गुलाब है गोया।। देख कर झुक गयी नज़र उसकी ये भी कोई नक़ाब है गोया।। पल में उड़ कर के आसमां छूना मन का पंछी उक़ाब है गोया।। होंठ गोया शराब के प्याले हुस्न उसका शराब है गोया।। किस तसल्ली से जान लेता है यार मेरा कसाब है गोया।। सुरेश साहनी,अदीब कानपुर
 सत्य के बदले हुए हैं मायने। सोच में धुंधला गए हैं आईने।।  आदमी घायल सड़क पर मर गया और एम्बुलेंस ले ली गाय ने।। प्रश्न संसद में उठे तो थे मगर उनके उत्तर गुम करे  संकाय ने।। लौह जब गलने लगा तो कह उठा मार डाला मृत पशु की हाय ने।। काम बन जाता मुहब्बत में मगर सब बिगाड़ा दोस्तों की राय ने।। राजमाताएं रहीं विश्रामरत राष्ट्र की रक्षा करी हर धाय ने।। सुरेश साहनी,कानपुर
 मुझमें कमियां देख रहा है। कुछ तो अच्छा सोच रहा है।। पत्थर क्यों मारोगे उसको आईना  ही     बेच रहा है।।
 औरों के दुख में भरी आह मेरा केवल इतना गुनाह। कुछ संबंधों को नहीं जँचा कविताई से मेरा निबाह।। कुछ फ़नकारों ने लूट लिया मेरे भावों का शब्दकोश फिर बाजारों में नाच उठे दो कौड़ी के कविताफ़रोश ऐसे में कोई क्या सुनता कवि के दिल से निकली कराह।। अब कविता है सच कहने से  कतराना या बच कर रहना केशों को काली घटा और  नयनो को मधुशाला कहना ऐसे कवियों की कविताएं  अब लूट रही हैं वाहवाह।। कुछ चरणदास कुछ चापलूस  कुछ भाट और  कुछ चाटुकार सब सुरा सुंदरी धन वैभव  आसक्त हो गए कलमकार  उनका अभीष्ट सत्ता वंदन  जग चाहे हो जाये तबाह ।। अब कितने कवि सुन पाते हैं अपने अन्तस् की वह पुकार जिसको सुन सुन कर परशुराम का परशु उठा इक्कीस बार उस ओर दुष्टता नहीं रही जिस ओर उठी उनकी निगाह।। निकले तरकस से वह तूणीर जिससे पापोदधि व्याकुल हो फिर से ऐसा अभियान चले जिससे विनष्ट रावण कुल हो कर दसमुख हन्ता को प्रणाम तर जाऊं भवसागर अथाह।।
 कुछ देर नयन अपने मूंदो कुछ देर स्वयं को बिसरा दो कुछ देर स्वयं में झांको तुम इतना कि स्वयं को जान सको तुम देह नहीं कुछ और भी हो इस होने को पहचान सको खुद को चिन्तन का मौका दो अनगिनत योनियों में प्राणी  जन्मते और मर जाते हैं यह नश्वर क्षण भंगुर जीवन कुछ लोग अमर कर जाते हैं तुम भी कुछ ऐसा होने दो
 हादसा दर्दनाक हो  तब ना। मौत भी इक मज़ाक हो तब ना।। लोग हमदर्दियाँ जताये क्यों वोट से इत्तेफ़ाक़ हो तब ना।। कैसे क़िरदार पर सवाल करें अपना दामन भी पाक हो तब ना।। हम सुख़नवर कहाँ से हो जाएं ख़्वाब उल्फ़त का खाक़ हो तब ना।। कैसे मानेगा मुझको दीवाना ये गरेबान चाक हो तब ना।। तंज़ करने से दूर भागोगे ये मज़ाकन सुज़ाक़ हो तब ना।। तुम सिकन्दर तो हो ही जाओगे पहले दुनिया मे धाक हो तब ना।। किस तरह खाएं भूख से ज़्यादा इतनी ज़्यादा ख़ुराक हो तब ना।। रोब ग़ालिब हो वज़्म में अपना हम में मीरो- फ़िराक़ हो तब ना।। सुरेश साहनी,कानपुर
 उन्हें तकलीफ़ है मेरी कहन से। वे दरबारी हैं तन से और मन से।। वे हुक्कामों को जीजा मानते हैं उन्हें कब प्यार है अपनी बहन से।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सूरज चाँद सितारे जुगनू सब तेरे पैमाने हैं रंग ,बहारें , गुलशन, गुल सब तेरे ही अफसाने हैं जाने क्या जादू है तेरी इन मस्तानी आंखों में पंछी, भौरें तितली और पतंगे तक दीवाने हैं।। मौसम, मंज़र , महफ़िल मौजू तेरे हैं सारे अपने ऐसा क्यों लगता है खाली हम तेरे बेगाने हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 देकर ज़ख्म दवा करता है।  यूँ एहसान किया करता है।। मैं जब दीपक बन जलता हूँ वो तूफान हुआ करता है ।। पंछी कब स्कूल गये है उड़ना वक्त सिखा देता है।। घर में दुनिया बहुत बड़ी थी बाहर का दिल भी छोटा है।। अम्मा बस तुम साथ नहीं हो बच्चा तो अब भी रोता है।। माँ तुम हो तो सब अपना है वरना इस दुनिया में क्या है।। आज गंग-जमुनी भारत भी हरा , लाल,पीला ,भगवा है।। क्या क्या रंग बदल लेती है अजब सियासत की दुनिया है।। सुरेश साहनी
 दांत चियारी चाहे निहुरी थेथर जनता नाही सुधरी जाति धरम पर बोट बँटेला दाम बढ़े से कुछ ना बिगरी
 कुछ देर नयन अपने मुंदो कुछ देर स्वयं के पास रुको क्या पाया है यह ध्यान रहे क्या खोया है महसूस करो आवाजाही     भागादौड़ी आपाधापी यह जीवन भर अपनों की ख़ातिर वक्त नहीं जी लो कुछ अपनी ही ख़ातिर ... कुछ खो जाने का भय लेकर पाने की कोशिश जीवन भर खोने पाने की चिंता में हम भूल गए जीवन के स्वर अपनी स्वाभाविकता खोकर हमने औरों में जीवन भर खोजा है अपने जीवन को कितना भी चीखों चिल्लाओ देखों चाहे आंखें फाड़ो जब थक जाओ तब बैठ कहीं कुछ देर नयन अपने मूंदो शायद तुम खुद को पा जाओ.....
 अजीब बात है मैं दायरे से बाहर क्यों नहीं आता जबकि आज वक़्त है चुप नहीं बैठने का जब उलझन बढ़ती है मैं कमरे से बाहर आ जाता हूँ टहलता हूँ घर से ठीक बाहर सड़क पर इधर से उधर और फिर कमरे में लौट आता हूँ कमरे में प्रकाश है बिजली रहने तक सोशल मीडिया है नेट पैक रहने तक और भी बहुत कुछ है जैसे कुछ किताबें और दवाएं भी और एक बाउंडेड फेसबुक एकाउंट भी जिसमें मैं नहीं पोस्ट करता वह सब सब यानी ऐसा कुछ  भी नहीं जिससे मेरा एकाउंट ब्लॉक हो जाय या मेरी ट्रोलिंग बढ़ जाये और मालूम है मैं अभ्यस्त हो रहा हूँ  सरकार को सहन करने का अब मैं पढ़ता हूँ आर्थिक मंदी देश के विकास में सहायक है असमान आर्थिक विकास से रोजगार बढ़ते हैं आखिर क्रांति ऐसे ही होगी ना? सुरेश साहनी ,कानपुर
 नफरतों से जमीं भरी न रहे। देखना इश्क़ की कमी न रहे।। ऐ ख़ुदा तेरी क्या ज़रूरत है आदमी ही जो आदमी न रहे।। तीरगी इस क़दर न छाये कहीं चाँद तारों में रोशनी न रहे।। आदमी ही वली न हो जाये जो वली है वहीं वली न रहे।। झूठ है कुर्सियों पे डर तो है ये न हो कल सही सही न रहे।। सुरेश साहनी,कानपुर
 चुप रहो एक पूरी ग़ज़ल बन सको प्यार का इक मुकम्मल महल बन सको ताज तैयार होने तलक चुप रहो।। ख़्वाब तामीर होने तलक चुप रहो पूर्ण तस्वीर होने तलक चुप रहो घर के संसार होने तलक चुप रहो।। राज तकरार में हैं छुपे प्यार के प्यार बढ़ता नहीं है बिना रार के रार मनुहार होने तलक चुप रहो।। आप इनकार करते हो जब प्यार से जीत जाते हैं हम प्रेम में  हार  से मन से इक़रार होने तलक चुप रहो।।
 लोग कैसे लिख लेते हैं रोज एक नयी कविता? क्या वे कमाने नहीं जाते? कामगार  किसान मजदूर  ये लिख सकते हैं? नहीं!पर मैं इनके किये कार्यों में कविता देखता हूँ पढता हूँ समझता हूँ!!!!!
 तेज बहती हों हवाएँ चल रही हों आँधियाँ। जब भी गहराये अँधेरा हम जलाते हैं दिया।। जब कभी खुशियों का सूरज भी निकलना छोड़ देगा। चंद्रमा भी राहु के भय से चमकना छोड़ देगा बन के जुगनू हम करेंगे जंग की तैयारियां।।
 लाख सीना ओ जिगर वाले हो डर जाओगे। मेरे हालात से गुजरोगे    तो मर जाओगे।। झूठ की जिंदगी जीने की तुम्हे आदत है सामना सच का करोगे तो मुकर जाओगे।। तुमको इस दिल में बिठाया था बड़ी भूल हुयी क्या खबर थी मेरी नजरों से भी गिर जाओगे।। प्यार एक ऐसा ठिकाना है जहाँ से उठकर हर जगह धोखे ही धोखे हैं जिधर जाओगे।। नफरती तुण्द हवाओं में हो बिखरे बिखरे प्यार के साये में आ जाओ संवर जाओगे।। सुरेश साहनी
 प्यार करना भी दर्द देता है। छोड़ देना भी दर्द देता है।। बोल देना भी दर्द देता है कुछ न कहना भी दर्द देता है।। दिल की बातों पे शायरी की तरह वाह कहना भी दर्द देता है।। मेरी अपनी कहानियां सुनकर उसका हंसना भी दर्द देता है।। गैर देते हैं दर्द लाज़िम है कोई अपना भी दर्द देता है।। एक भूली हुयी कहानी का याद आना भी दर्द देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ऐसी भी   लाचारी क्या! कमज़रफों से यारी क्या।। दिल को कैसे जीतेगा जीती बाज़ी हारी क्या।। जान नगद दी जाती है इसमें कर्ज़ उधारी क्या।। क्यों मुरझाया फिरता है पाली है बीमारी क्या।। नीयत साफ नहीं है तो निजी और सरकारी क्या।। हुयी घोषणा बहुत मगर हुयी योजना जारी क्या।। सेठों की सरकारें हैं तुम भी हो व्यापारी क्या।। शासन भाषण देता है उसकी जिम्मेदारी क्या।।
 लिखने के एवज में ########## मैं लगभग हर रोज चोरी करता हूँ।नहीं चोरी कहना ठीक नहीं होगा।मैं अपने आराम के समय,नींद के समय और बच्चों को देने वाले समय से समय चुराता नहीं छीनता हूँ।यह चोरी से ऊपर का लेवल है। लेकिन आज का यह लेख चोरी या डकैती से सम्बंधित नहीं है।मामला लिखने या न लिखने का भी नहीं है।हाँ यह सार्थक और निरर्थक लेखन का विषय जरूर है। इस लिखने के बीच में बच्चा साँप सीढ़ी खेलने के लिए कहता है।श्रीमती जी अपनी मम्मी के घर चलने को कह रही हैं।बिटिया कुछ किताबें खरीदने की बात कह रही है। बड़े भाई संगीत की बैठक में बुला रहे थे।एक मित्र ईद मिलन के लिए कुछ मित्रों के घर चलने को कह रहे हैं। पड़ोस में सत्संग का कार्यक्रम भी है।अर्थात लिखने की साधना इतने यंत्रणाओं से गुज़र कर भी पूरी नहीं हो पाती। चार से पांच घण्टों में इतना ही लिख पाया हूँ ,जितना आप पढ़ रहे हैं।  और लिख देना ही पर्याप्त नहीं है।लिख देने के बाद पोस्ट करते ही आप पर आक्रमण होने शुरू हो जाते हैं।एक बार आपके चाहने वाले लाइक कमेन्ट करें या न करें,विरोध करने वाले तलवार ज़रूर भाँज जाते हैं। आप लिखिए अनूप शुक्ल बहुत अच्छे लेखक हैं।श...
 वक्त हर घाव को भर देता है। चाक दामन रफू कर देता है।। ज़ुल्म की हस्ती मिटा दे ऐसा सबकी आहों में असर देता है।। खत्म होती हुयी उम्मीदों को वो नयी राहगुज़र देता है।। दिन ढले रात वही करता है रात से वो ही  सहर देता है।। अहले दुनिया की भलाई होगी वो सज़ाएं भी अगर देता है ।। ठौर देता है चरिंदों के लिए तो परिंदों को शजर देता है।। सब का मालिक है ख़ुदा बन्द करीम सब को जीने के हुनर देता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 तुम दिखती हो तो लगता है इक राधा थी इक श्याम भी थे जो बरसाने  में फेरे कर अनजाने में बदनाम भी थे तुम कितनी सुन्दर लगती थी रुक्मिणी सत्यभामा क्या हैं तुम अब भी सुन्दर लगती हो रम्भा कजरी श्यामा क्या हैं सच पूछो तो इन रिश्तों के संसारिक  नाम  नहीं होते वरना गोकुल मथुरा होते पर   राधेश्याम  नहीं होते तब भी तुम से था प्यार बहुत अब भी उतना अपनापन है पा लेना अंत प्रेम का है खो देना निश्चित जीवन है यह खो देना ही राधा को औरों से आगे रखता है जब कोई श्याम सुमिरता है राधे को आगे रखता है..... सुरेश साहनी,कानपुर
 जब वो अपनी जात बिरादर देखेगा। कैसे सबको एक बराबर देखेगा।।  सारी दुनिया ही भगवान भरोसे है वो बेचारा कितनों के घर देखेगा।। क्या जुड़ पायेगा वो जनता के दुख से  जब उठती आवाज़ों में डर देखेगा।। तुम सब के हित देखेगा यह मत सोचो वो सत्ता पाने के अवसर देखेगा।। वह जो अपना घर तक देख नहीं पाया क्या ज़िम्मेदारी से दफ़्तर देखेगा।। 0309 सुरेश साहनी,कानपुर
 हम तो यूँही भौक रहे हैं| आप मगर क्यूँ चौंक रहे हैं||  वादा करना और भूलना, आप के क्या-क्या शौक रहे हैं||  मेरा  दामन काला क्यूँ है| उसके घर उजिआला क्यूँ है|| कौन   हैं जो झोपड़ीकी  तरफ, बढ़ा  उजाला रोक रहे हैं|| एक  तरफ सड़ता अनाज है, बदले  में बेचनी लाज है, भूखे पेट की खातिर  अपना, तन  बाजार में झोंक रहे हैं|| आज तलक तो यही पढ़ा है, निजी स्वार्थ से देश बड़ा है, आज यही जब   पढ़ा रहा हूँ, नौनिहाल   क्यूँ टोक रहे हैं|| सुरेशसाहनी
 इस शहर में मैं अपना शहर ढूंढ़ रहा हूँ। अपने शहर में अपनो के घर ढूंढ़ रहा हूँ।। बरसों से भटकता हूँ समन्दर के किनारे जो दिल में उठी थी वो लहर ढूंढ़ रहा हूँ।। इन झील सी आँखों में किसे खोज रहा हूँ क्या अपनी मुहब्बत का असर ढूंढ़ रहा हूँ।। कुछ शेर मेरे जेहन में आवारा फिरे हैं मैं काफ़िया रदीफ़ बहर ढूंढ़ रहा हूँ।। हैं इंतज़ार में भी मजा तुने कहा था मैं तब से तुझे शामो -सहर ढूंढ़ रहा हूँ।। इस शहर के हालात अभी ठीक नहीं है मिल जाये कोई ठौर ठहर ढूंढ़ रहा हूँ।। मैं दिल का सुकूँ ढूंढते आ पहुँचा भंवर में सब सोचते हैं लालो-गुहर ढूंढ़ रहा हूँ।। सुरेश साहनी , कानपुर
 थाली पे नज़र है कि निवालों पे नज़र है। सरकार की हक मांगने वालों पे नज़र है।। सरकार ने घर फूंकने के हुक्म दिए हैं सरकार कि हर घर के उजालों पे नज़र है।। सरकार को दस साल तक तकलीफ न पहुंचे सरकार शिकारी हैं जियालों पे नज़र है।। सरकार के मुखलिफ् कोई आवाज न उट्ठे सरकार की आज़ाद खयालों पे नज़र है।। यूँ ही कोई कमसिन कली रौंदी नही जाती सरकार की कम उम्र गज़ालों पे नज़र है।। संसद में या अख़बार में अब उठ न सकेंगे सरकार न फंस जाए सवालों पे नज़र है।। मेहनत से या फिर नेक इरादे से लड़ा कौन हर दल की वोट बेचने वालों पे नज़र है।। सुरेश साहनी कानपुर
 समन्वय और विग्रह यह दोनों प्राकृतिक गुण हैं।जीवों में प्रतिशत भिन्न हो सकता है।परिस्थितियों के अनुसार यह घट बढ़ सकता है।किंतु मानवता समन्वय के निकट अधिक है।जीवन की उत्पति  विग्रह से हुयी है।किंतु जीवन शैली अथवा सभ्यता समन्वय का परिणाम है। आगे चलकर सभ्यताएं भी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए द्वन्द करती दिखाई पड़ती है।किंतु अंततः समन्वय संघर्ष पर भारी पड़ता है। सही मायने में देखा जाए तो सृष्टि के प्रत्येक क्षेत्र अथवा स्वरूप में समन्वय का अंतराल विग्रह के अंतराल से अधिक है।निषाद नदी घाटी सभ्यताओं के जनक हैं।उन्होंने जल थल और मानव जीवन के समन्वय सूत्र स्थापित किये।यह उनकी मूल प्रकृति है। किंतु उन्होंने डायनासोर की तरह पारिस्थितिक परिवर्तन स्वीकार नहीं किये।इसीलिए आज समाज की मुख्यधारा में नहीं है। इसका यही कारण है कि वे भोग विलास में समन्वय को भूल गए। उन्हें विकास को स्वाभाविक मानकर उसके साथ भी समन्वय स्थापित करना चाहिए था। पलायन समन्वय नहीं है। निषाद संस्कृति और आर्य संस्कृति में अनवरत संघर्ष चला है।इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं मिलता।किन्तु शैव और वैष्णवों के पौराणिक सन्दर्भ मिलते ...
 हर घड़ी मनुहार करना क्या यही है प्यार करना.. कब तलक रूठे रहोगे सीख लो अभिसार करना.... रूपसी हो गर्व कैसा मानिनी हो दर्प कैसा एक दूजे से सृजन है रति बिना कंदर्प कैसा कल्पना कृति संगमन है प्रेम को साकार करना.... हर घड़ी होती नहीं है भावनाओं के मिलन की शुभ मुहूरत के प्रहर में क्या प्रतीक्षा आचमन की युग्म होना है स्वयं के प्रेम का विस्तार करना.... अंकुरण प्रभु प्रेरणा है  प्रीति अंगीकार कर लो देह से ऊपर उठो प्रिय मन भी एकाकार कर लो अन्यथा बस वासना है देह एकाकार करना..... Suresh Sahani
 जाने से रोक लेगा मुझे हाथ थाम कर लेकिन मेरे खयाल का कुछ भी नहीं हुआ।। मुद्दत के बाद उससे मिले फिर बिछड़ गये इक ख़्वाब था विसाल का कुछ भी नहीं हुआ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 वर्जनाएं  उम्र भर ढोते रहे सहजताएँ प्राकृतिक खोते रहे किसलिये फिर  मुक्ति पाने के लिए पत्थरों के सामने रोते रहे..... सुरेश साहनी ,कानपुर
 अपनी आदत में है दुआ देना। कोई इल्ज़ाम मत लगा देना।। बुझते शोलों को क्या हवा देना। मेरा दामन न तुम जला देना।। आपके दिल मे कौन रहता है राज ख़ुद को न तुम बता देना।। आग तब थी अभी तो पानी है जब लगे तब दिया बुझा देना।।  क्या ज़रूरी है कब्र का बोसा  बस मेरे गीत गुनगुना देना।। उसकी आदत है नाम साहिल पर शाम लिखना सुबह मिटा देना।। जानलेवा है ये अदा उसकी देखना और मुस्कुरा देना।। सुरेश साहनी
 नित तरमाल ज़रूरी है क्या। यही सवाल ज़रूरी है क्या।। हाकिम हाकिम ही रहता है ले अहवाल ज़रूरी है क्या।। तुम ब्रेड भी खा सकते हो रोटी दाल ज़रूरी है क्या।। मन की बात नहीं सुनते हो कहना हाल ज़रूरी है क्या।। जन हो दब कर रहना सीखो बहुत उछाल ज़रूरी है क्या।। नाहक़ धरना और प्रदर्शन रोज बवाल ज़रूरी है क्या।। क्या क्या बेचें लोग ख़फ़ा हैं इत्ता माल ज़रूरी है क्या।। मंदिर मस्ज़िद करते रहिये और धमाल ज़रूरी है क्या।। हम नेता हैं अपने हिस्से ये आमाल ज़रूरी है क्या।। जीडीपी माइनस में है बहुत उछाल ज़रूरी है क्या।। युवा पकौड़े बेच रहे हैं  और कमाल ज़रूरी है क्या।। कितना टैक्स वसूलें इससे नरकंकाल ज़रूरी है क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर
 ठीक है ज़ख़्म भर ही जायेंगे। फिर भी हम कल उधर ही जायेंगे।। हम मुक़ाबिल हैं आंधियों में भी कैसे सोचा बिखर ही जायेंगे।। लाख खानाख़राब है मौला हम अभी उसके घर ही जायेंगे।। हौसला है तो आसमानों पर हम बिना बालो-पर ही जायेंगे।। जो नहीं जानते हैं मय क्या है वो अभी दैरो दर ही जायेंगे।। सू ए मक़तल है यार का घर तो शौक से उस डगर ही जायेंगे।। आह के तीर दिल से निकले तो कुछ न कुछ काम कर ही जायेंगे।। सोहबते-हुस्न रंग लाएगा हम भी कुछ कुछ सँवर ही जायेंगे।। मौत से कितना दूर भागेंगे जब थकेंगे ठहर ही जायेंगे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मुझे मर्ज़-ए-इश्क़ है क्या करूँ। मैं दवा करूँ कि दुवा करूँ।। कहीं रंज़ हैं,कहीं हादिसे मैं कहाँ कहाँ से बचा करूँ।। हो तेरी निगाहे-करम जिधर मैँ उधर  उधर ही रहा करूँ।। मैं तेरी रज़ा का मुरीद हूँ तू कहे तो कोई ख़ता करूँ।। तेरा इश्क़ है मेरी ज़िन्दगी इसे कैसे खुद से जुदा करूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर
 फसले- बहार भी नहीं बादे-सबा नहीं। शायद   मेरे  नसीब में   ताज़ा हवा नहीं।। बरसों से बंद है मेरी तक़दीर की किताब जैसे किसी ने कुछ भी लिखा या पढ़ा नहीं।। पढ़ती थी मेरी भूख मेरी प्यास किस तरह कहते थे सब कि माँ ने कहीं भी पढ़ा नहीं।। इक बात तेरी दिल में मेरे गूंजती रही मैंने सुना नहीं कभी तुमने कहा नहीं ।। तुम क्या गये कि हम भी जहाँ से निकल लिए तुम बेवफ़ा थे हम भी कोई बावफ़ा नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कछु अड्ड मिलें ,कछु बड्ड मिलें जँह हमरे जैस उजड्ड मिलें समझो कवियों का जमघट है। बातन मा योग बिछोह दिखै हरकत हो अइस गिरोह दिखै समझो कवियों का जमघट है।। जँह रात में भैरव गान मिलै जँह तालें तूरत तान मिलै समझो कवियों का जमघट है।। जँह सारे उटपटांग मिलै जँह भाषा टूटी टांग मिलै समझो कवियों का जमघट है।। #सुरेशसाहनी
 साहित्य का कारपोरेटीकरण इसका सम्बन्ध स्तर से नहीं  मार्केटिंग मैनेजमेंट से होगा तब कुछ साहित्यकार  बहुत सम्पन्न होंगे जावेद अख्तर और चेतन भगत की तरह
 दिल्ली इतनी दूर नहीं थी जाने क्यों। यारों ने कर डाले लाख बहाने क्यों।। कहने को तो वो कबीर का वारिस है फिर गाता है नफरत भरे तराने क्यों।। छोड़ो भी इन बातों में क्या रखा है याद करें हम बीते हुये फ़साने क्यों।। ऐसी बातें जिनसे नफ़रत बढ़ती है ऐसी बेहूदा बातें हम माने क्यों।। क्या मिलना है हमको माज़ी में जाकर फिर लौटेंगे गुज़रे हुए ज़माने क्यों।। हम अब भी उस गलती पर पछताते हैं क्या बनना था बन बैठे दीवाने क्यों।। हम ख़ुद हैरां है  आखिर किस गफलत में अपनी ही हस्ती से थे  अनजाने क्यों।। सुरेश साहनी, अदीब,  कानपुर
 ये मत समझो कहीं ढूंढ़ा नहीं था। बहुत थे कोई तुम जैसा नहीं था।। अगर हाज़िर मेरा बेहतर नहीं है तो माज़ी भी बहुत अच्छा नहीं था।। चलो चेहरा बदलना मान भी लें मगर किरदार तो बदला नहीं था।। जहाँ ख़ुद को तलाशा चाहते थे वहाँ पत्थर थे आईना नहीं था।। किसे ग़मख़्वार अपना मान लेते जनाज़े में तो वो  रोया नहीं था।। सुरेश साहनी, कानपुर  9451545132