स्वच्छन्द रहे वह कविता है

निर्बाध बहे वह कविता है

जैसे इक नदिया बहती है

या बासंती मदमस्त हवा

अवसर आने पर सावन में

झूलों पर हमें झुलाती है

नटखट पन पवन झकोरों का

जब अपनी रौ में आता है

तब जाड़े की शीतलहर बनकर

वह इतनी हाड़ कँपाता है

इतनी जिससे कि दो प्रेमी

आपस का अंतर खो बैठे

इतनी की नदी अपनी रौ में

धीरे धीरे बहते बहते

जाकर सागर में मिल जाये

सागर से मिलने को आतुर

निर्बाध नदी को बहने दो

कविता ऐसी ही रहने दो


सुरेश साहनी

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