मित्र मेरे अनवरत बढ़ते रहे।
इसलिए हम दीप बन जलते रहे।।
इक मरुस्थल विश्व जैसे नेह बिन
आत्मा निर्मूल्य जैसे देह बिन
नेह में हम स्वयम् को छलते रहे।।
अंत खाली हाथ रहना था हमें
था भ्रमित कुछ भी न मिलना था हमें
जानकर अनजान हम बनते रहे।।
प्रेम में मिलना बिछड़ना गौण है
ये सभी तो प्रेम पथ के मोड़ हैं
हम बिना विचलित हुए चलते रहे।।
सुरेश साहनी
Comments
Post a Comment