खटखटाया द्वार कितनी बार मैंने।
पर न पाया प्रेम का आगार मैंने।।
विश्व सारा कोई अपरम्पार मेला
भीड़ इतनी और मैं कितना अकेला
क्यों अकेलापन किया स्वीकार मैंने।।
हाँ प्रतीक्षा की घडी कितनी बड़ी थी
रात जैसे प्राण लेने पर अड़ी थी
कष्ट झेले पर न मानी हार मैंने।।
मत कहो संदेह में जीता रहा हूँ
बस तुम्हारे नेह में जीता रहा हूँ
तुझमे देखा है मेरा संसार मैंने।।
सुरेशसाहनी
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