छाँह में जलना पड़ा है
धूप में हम खिलखिलाए
हमने नाहक़ छाँह के
हित मे अनेकों गीत गाये
छाँह के रिश्ते छली थे
धूप में कब साथ देते
छाँह में एहसास अपने
एक दिन दम तोड़ देते
छाँह पाने के लिए क्यों
स्वर्ण-श्रम-सीकर लुटाये।।
यूँ भी मृगतृष्णा दिखाई है तो
चश्मा भी दिखाया
मरुथलों की रेत ने ही
समय से परिचय कराया
सागरों के लुप्त मोती
मरुथलों में हमने पाये ।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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