माना हम नाक़ाबिल निकले।

तुम भी तो पत्थरदिल निकले।।


ग़ैरों पर शक़ टूट गया जब

तुम ही मेरे क़ातिल निकले।।


दिल की बातें क्या सुनते तुम 

तुम तो बुत से बेदिल निकले।।


उम्मीदों के चाँद सितारे

अक्सर धूमिल धूमिल निकले।।


दुनिया से लड़ सकता था मैं

लेकिन तुम ही बुज़दिल निकले।।


ग़म में यूँ हँस पड़े ठठाकर

वक़्त मेरा क्यों बोझिल निकले।।

 

शायद आगे निकल गए हम

पीछे अपनी मंज़िल निकले।।


क्यों ना हल होती हर मुश्किल

हम उलझन से हिलमिल निकले।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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