तुम कहते हो कुछ और लिखो

आख़िर मैं ऐसा क्या लिख दूँ 

जो तुम देखो तो और दिखे

क्या सचमुच तुम सह पाओगे

मौजूदा हाल बयानी को

शायद तुमको बर्दाश्त न हो

जब सच को सच मैं लिखता हूँ

तब कागज जलने लगता है

तब कलम हाथ की लाल सुर्ख

अंगारे सी हो जाती है

कहती है आज जरूरत थी

यह हाथ हवा में लहराते

तुम कागज और कलम लेकर

कुछ झूठ सजाने बैठे हो


क्या तुमको भारत का मस्तक

तप रहा दिखाई देता है 

क्या तुम्हें दिखा वह लोकतंत्र

जो काश्मीर में बंधक है

क्या तुम्हें दिखा वह संविधान

फिर उसी तरह से लहूलुहान

जैसे दिल्ली की गलियों से

इक रोज बहादुर शाह जफर

हाथों में हथकड़ियां बांधे

पैरों में बाँधे ज़ंजीरें

रंगून के लिए निकला था

कुछ इसी तरह आज़ाद देश ने

गांधी को भी मारा था

अब तो इतनी आज़ादी है

तुम गांधी जी का एक नहीं

सौ बार खून कर सकते हो

तुम फिर फिर चुप रह सकते हो


फिर मत कहना कुछ और लिखो

मैं लिखने को कुछ भी लिख दूँ

लेकिन क्या सच सह सकते हो


सुरेश साहनी, कानपुर

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