तू मेरे जीवन का कल है।
किसलिए आज मन बेकल है।।
जो स्वप्न दिखे थे बिखर गये
अब स्मृतियाँ भी शेष नहीं
थी लिखी बहुत कविता तुम पर
उनकी प्रतियाँ भी शेष नहीं
मत पूछो मन पनिहारिन से
क्या फूटी गगरी में जल है।।
वैसी भी अब इस जीवन का
कितने दिन यहां ठिकाना है
मुझको तुमसे क्या पाना है
तुमको भी क्या मिल जाना है
फिर नयन कोर क्यों भीगे हैं
किसलिए आज मन विह्वल है।।
है पुनर्जन्म तो चलो कभी
फिर से मिलना जुलना होगा
यदि विधि अपने अनुकूल रहा
पूरा निश्चित सपना होगा
पर आज उसी का सब कुछ है
जिसने वारा मुझ पर कुल है।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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