गए वक़्त की क्या बिसात है नवयुग को आने से रोके

नित्य रात्रि के प्रहर बिताकर सूरज नया उगा करता है।।

नित्य तिमिर आहुति लेता है उजियारो के स्वर्ण काल की

उसी तिमिर को नित्य हराकर सूरज नया उगा करता है।।


धर्म अर्गलाओं मे लटके है अधर्म के वल्कल कितने

लगा दिए हैं रूढ़िवाद ने चिंतन पट पर साँकल कितने

जनसत्ता के नन्दन कानन जब अधिनायक कटवाते है

ढक लेते हैं इंद्रप्रस्थ को घृणावाद के जंगल कितने


कभी कभी लगने लगता है वही उजालों के प्रतिनिधि हैं

तब भ्रम का हर पुंज मिटाकर सूरज नया उगा करता है।।


कभी मौलवी कभी पादरी कभी संत का धरकर बाना

कभी धर्म को गाली देना और कभी गाली दिलवाना

अपने स्वार्थ सिद्धि की ख़ातिर नित्य नित्य आदर्श बदलना 

और स्वयम को ईश्वर कहकर अपनी ही पूजा करवाना


धर्म वीथिकाओं में अक्सर अगर चीखती है मर्यादा 

तब विलम्ब कुछ होता है पर सूरज नया उगा करता है।।


सुरेश साहनी , कानपुर

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