दिल के जख्मों को सजाना खल गया।

उनको मेरा मुस्कुराना खल गया।।

कल जिन्हें था उज़्र मेरे मौन पर

आज हाले-दिल सुनाना खल गया।।

उनसे मिलने की खुशी में रो पड़ा

पर उन्हें आँसू बहाना खल गया।।

उसकी यादेँ, उसके ग़म ,तन्हाईयां

उसको मेरा ये खज़ाना खल गया।।

चाहता है  ये शहर  हम छोड़ दें

क्या उसे मेरा ठिकाना खल गया।।

उसको मेरी चंद खुशियां खल गयीं

उसको मेरा आबोदाना खल गया।।

आख़िरश उसको ज़नाज़े में मेरे

इतने सारे लोग आना खल गया।।

सुरेश साहनी ,कानपुर

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है