रंग वो गर्दिश-ए-अय्याम के थे
वरना हम आदमी तो काम के थे।।
लोग कहने को बहुत थे अपने
पर वो अपने भी फ़क़त नाम के थे।।
ख़ाली पैमाने को देखा किसने
दोस्त मयनोश भरे ज़ाम के थे।।
ग़म-ओ-तकलीफ में मुंह मोड़ गये
दोस्त भी ऐश-ओ-आराम के थे।।
वक्त ने जाने क्यों मुंह फेर लिया
काम अपने मग़र ईनाम के थे।।
हमने तौबा से सुबह धो डालें
लगे जो दाग़ हम पर शाम के थे।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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