अपने किसी को हक़ से बुलाऊँ तो किस तरह।
अपने बिके मकान में जाऊँ तो किस तरह।।
हैं रोशनी से कम नहीं यादें विसाल की
इस तीरगी में उसको भुलाऊं तो किस तरह।।
तुमसे बिछड़ के जैसे में ख़ुद से बिछड़ गया
ख़ुद के करीब ज़िन्दगी आऊँ तो किस तरह।।
अरसा हुआ में नींद से मिलने नहीं गया
ख़ुद के लिए मैं लोरियाँ गाउँ तो किस तरह।।
कांधे बिठा के बाप ने जो कद मुझे दिया
फिर से उसी मेयार को पाऊँ तो किस तरह।।
खुल कर के हँसना छोड़िये रोना भी गुम हुआ
अब फूट फूट ख़ुद को रुलाऊँ तो किस तरह।।
मतलबपरस्त दौर में रिश्ते कहाँ बचे
ख़ुद रूठ जाऊँ खुद को मनाऊँ तो किस तरह।।
सुरेश साहनी, कानपुर
सम्पर्क 9451545132
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