तो किसपे जान लुटाता
मैं किस पे मर जाता।
बहार चार सू पसरी थी
मैं किधर जाता।।
वो इक निगाह जो
हर शख़्स पे करीम हुई
हमारे इश्क़ पे पड़ती
तो मैं संवर जाता।।
मैं आफताब न था
ताबदार था लेकिन
मेरी सुआओं में
जलवा तेरा निखर जाता।।
किसे कुबूल थी हस्ती
बग़ैर यारब के
बहुक़्म यार के खुद ही
बिखर बिखर जाता।।
हमें जो इश्क़ का मज़हब
कोई बता देता
तो हँसते हँसते मैं
ये भी गुनाह कर जाता।।
Suresh Sahani, Kanpur
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