औरों के दुख में भरी आह

मेरा केवल इतना गुनाह।

कुछ संबंधों को नहीं जँचा

कविताई से मेरा निबाह।।


कुछ फ़नकारों ने लूट लिया

मेरे भावों का शब्दकोश

फिर बाजारों में नाच उठे

दो कौड़ी के कविताफ़रोश


ऐसे में कोई क्या सुनता

कवि के दिल से निकली कराह।।


अब कविता है सच कहने से 

कतराना या बच कर रहना

केशों को काली घटा और 

नयनो को मधुशाला कहना


ऐसे कवियों की कविताएं 

अब लूट रही हैं वाहवाह।।


कुछ चरणदास कुछ चापलूस 

कुछ भाट और  कुछ चाटुकार

सब सुरा सुंदरी धन वैभव 

आसक्त हो गए कलमकार 


उनका अभीष्ट सत्ता वंदन 

जग चाहे हो जाये तबाह ।।


अब कितने कवि सुन पाते हैं

अपने अन्तस् की वह पुकार

जिसको सुन सुन कर परशुराम

का परशु उठा इक्कीस बार


उस ओर दुष्टता नहीं रही

जिस ओर उठी उनकी निगाह।।


निकले तरकस से वह तूणीर

जिससे पापोदधि व्याकुल हो

फिर से ऐसा अभियान चले

जिससे विनष्ट रावण कुल हो


कर दसमुख हन्ता को प्रणाम

तर जाऊं भवसागर अथाह।।

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