इक बार तो ये हाथ मेरे हाथ में रक्खो।
फिर जाओ जिसे चाहो उसे साथ में रक्खो।।
वैसे तो मुलाक़ात की बंदिश नहीं लेकिन
रस्मे-रहे-दुनिया भी खयालात में रक्खो।।
अश्कों से मेरे उज़्र है तो ऐसा करो तुम
अब अगली मुलाक़ात को बरसात में रक्खो।।
रुसवाई का डर है तो मेरा नाम न लेकर
मुझको भी ख़्वातीन-ओ- हज़रात में रक्खो।।
ये क्या है कि खुद तो रहो कश्मीर में जाकर
मुझको कभी गोआ कभी गुजरात में रक्खो।।
दिन में तुम्हें फुरसत न मिली है न मिलेगी
ख़्वाबों में सही साथ मुझे रात में रक्खो।।
तुम हुस्न हो मैं इश्क़ हूँ ये फ़र्क़ है हममें
पर दिल की लगी को तो मसावात में रक्खो।।
सुरेश साहनी, कानपुर।
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