समन्वय और विग्रह यह दोनों प्राकृतिक गुण हैं।जीवों में प्रतिशत भिन्न हो सकता है।परिस्थितियों के अनुसार यह घट बढ़ सकता है।किंतु मानवता समन्वय के निकट अधिक है।जीवन की उत्पति  विग्रह से हुयी है।किंतु जीवन शैली अथवा सभ्यता समन्वय का परिणाम है। आगे चलकर सभ्यताएं भी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए द्वन्द करती दिखाई पड़ती है।किंतु अंततः समन्वय संघर्ष पर भारी पड़ता है। सही मायने में देखा जाए तो सृष्टि के प्रत्येक क्षेत्र अथवा स्वरूप में समन्वय का अंतराल विग्रह के अंतराल से अधिक है।निषाद नदी घाटी सभ्यताओं के जनक हैं।उन्होंने जल थल और मानव जीवन के समन्वय सूत्र स्थापित किये।यह उनकी मूल प्रकृति है। किंतु उन्होंने डायनासोर की तरह पारिस्थितिक

परिवर्तन स्वीकार नहीं किये।इसीलिए आज समाज की मुख्यधारा में नहीं है। इसका यही कारण है कि वे भोग विलास में समन्वय को भूल गए। उन्हें विकास को स्वाभाविक मानकर उसके साथ भी समन्वय स्थापित करना चाहिए था। पलायन समन्वय नहीं है। निषाद संस्कृति और आर्य संस्कृति में अनवरत संघर्ष चला है।इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं मिलता।किन्तु शैव और वैष्णवों के पौराणिक सन्दर्भ मिलते हैं।उन्हें नकारा नहीं जा सकता।मानस में तुलसीदास जी इस टकराव को टालने के लिए समन्वय का प्रयास करते दिखाई पड़ते हैं।और सेतु निषाद को बनाते हैं।इसे सहज रूप में यूँ कहा जा सकता है कि निषाद समन्वय के प्रतिरूप हैं।इनका विचलन इन्हें दैत्य और देव बनाता है।तब क्यों न सकारात्मक प्रवृत्तियों की ओर बढ़ा जाये।

#समन्वयवाद

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