मुझे मर्ज़-ए-इश्क़ है क्या करूँ।
मैं दवा करूँ कि दुवा करूँ।।
कहीं रंज़ हैं,कहीं हादिसे
मैं कहाँ कहाँ से बचा करूँ।।
हो तेरी निगाहे-करम जिधर
मैँ उधर उधर ही रहा करूँ।।
मैं तेरी रज़ा का मुरीद हूँ
तू कहे तो कोई ख़ता करूँ।।
तेरा इश्क़ है मेरी ज़िन्दगी
इसे कैसे खुद से जुदा करूँ।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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