Posts

Showing posts from 2025
 कहने को भले लोग भी दो-चार मिलेंगे। वरना सभी मतलब के लिए यार मिलेंगे।। तुम पारसा हो उन्हें
 हो लुधियाना कि दिल्ली सब बराबर धुँआ नथुनों में गोया बस गया है।।
 गर्दिशों में जूझ जा गिरदाब से बाहर निकल। शम्स है तू तीरगी के ताब से बाहर निकल।।
 ये नहीं है कि प्यार है ही नहीं। दरअसल वो बहार है ही नहीं।। वो तजस्सुस कहाँ से ले आयें जब कोई इंतज़ार है ही नहीं।। फिर मदावे की क्या ज़रूरत है इश्क़ कोई बुख़ार है ही नहीं।। क्यों वफ़ा का यक़ी दिलायें हम जब उसे एतबार है ही नहीं।। मर भी जायें तो कौन पूछेगा अपने सर कुछ उधार है ही नहीं।। आपकी फ़िक्र बेमआनी है साहनी सोगवार है ही नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 किसलिये अजनबी ऊज़रे को भजें उससे बेहतर है हम सांवरे को भजें।। हमसे कहता है जो हर घड़ी मा शुचः हम उसे छोड़ क्यों दूसरे को भजें।। उसके मुरली की तानों में खोये हैं हम किसलिये फिर किसी बेसुरे को भजें।। बृज का कणकण मेरे यार का धाम है  तब कहो अन्य किस  आसरे को भजें।। जितना नटखट है उतना ही गम्भीर है हम उसे छोड़ किस सिरफिरे को भजें।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हर नेमत है प्रकृति में ममता का प्रतिरूप। मां गर्मी में छाँह है माँ सर्दी की धूप।।साहनी
 मज़लूमों को जेल भेजना तगडों को फटकार लगाना अब मुन्सिफ़ी है केवल सत्ता की नैया पार लगाना प्रबल झूठ को सत्य बताकर सहज सत्य  अपमानित करना श्वेत वसन हर अपराधी को नायक कह सम्मानित करना गुण्डों को उच्चासन देना सीधों को नीचे बैठाना
 मैं बड़ा तो नहीं मगर फिर भी। लोग कहते हैं सुख़नवर फिर भी।। मैं गदायी न राहबर फिर भी। फिर रहा हूँ मैं दरबदर फिर भी।।
 इस रहगुजर के बाद कोई रहगुज़र है क्या। अंतिम सफ़र के बाद भी कोई सफ़र है क्या।। जो कुछ भी हो रहा है मेरी जिंदगी के साथ मैं तो बता न पाऊंगा उसको ख़बर है क्या।। तुम कह रहे हो एक दिन  तूफान आएगा खामोशियों में वाकई इतना असर है क्या।। क्यों कह रहा है आप मुझे जानते नहीं क्या सच में तिफ्ल इतना बड़ा नामवर है क्या।। उनकी गली में आके अदीब अजनबी लगा आमद से मेरी वो भी अभी बेखबर है क्या।। देते थे दर्दे दिल की दवा वह कहां गए अब भी वहीं दुकान वहीं चारागर है क्या ।। गजलों में उसकी हुस्न नहीं ज़ौक भी नहीं ये साहनी कहीं से कोई सुखनवर है क्या।। सुरेश साहनी कानपुर ९४५१५४५१३२ 23 मई2022
 आपके दिल मे जगह मिल जाये। हमको जीने की वज़ह  मिल जाये।। बांध लीजे यूँ हमें जुल्फों में खोल दीजे जो गिरह मिल जाये।। आपकी एक तबस्सुम जो मिले दिल की उलझन को सुलह मिल जाये।। इन्तेज़ारात को गर वस्ल मिलें ग़म की रातों को सुबह मिल जाये।। बेझिझक छोड़ के जा सकते हो कोई  यदि मेरी तरह मिल जाये।। सुरेशसाहनी 2019
 हमारा प्यार रोशन हो गया है। गुलो- गुलज़ार रोशन हो गया है।। अदू तैयार हैं लेकर बिसातें नया यलगार रोशन हो गया है।। कहीं से छाप कर के नाम मेरा कोई अखबार रोशन हो गया है।। तुम्हारे साथ जुड़कर  दास्ताँ में मेरा किरदार रोशन हो गया है।। इधर हम आ गये गर्दिश में सुनकर उधर बाज़ार रोशन हो गया है।।  साहनी सुरेश
 यूँ भी मुझमें न कर तलाश मुझे। ढूंढ अपने ही आसपास मुझे।। मैं कहीं देवता न हो जाऊं इतना ज्यादा भी मत तराश मुझे।। मैं मेरी सादगी न खो बैठूँ रास आता नहीं विकास मुझे।। मैं जहां हूँ वहीं बहुत खुश हूँ मुझको रहने दे अपने पास मुझे।। साहनी खुश है आम ही रहकर कह दो समझें न लोग ख़ास मुझे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 यदि कोई इतिहास बनाना चाहेगा। वो मुझको सायास बुलाना चाहेगा।। झूठी चाहत को फुर्सत कब मिलती है सत्य साथ अवकाश मनाना चाहेगा।।साहनी
 कारवाने-ज़िन्दगी को क्या कहें। इस अजब सी त्रासदी को क्या कहें।। इक ज़रा सी दीद से जो बुझ गयी आपकी इस तिश्नगी को क्या कहें।। दिल की बातें लब पे लायें किसलिये तू नहीं तो फिर किसी को क्या कहें।।
 खाक़ बारादरी से मिलता है। इल्म यायावरी से मिलता है।। जो नशा मैकदे में मिलता है कब किसी मदभरी से मिलता है।। हुस्न बेशक़ मिलेगा महलों में इश्क़ उस बावरी से मिलता है।। बस कि तस्कीन है कमाते हैं क्या भला चाकरी से मिलता है।। साहनी को हवस रहे क्यों जब सब उसे सांवरी से मिलता है।।
कैसे मानूँ कि मैं मुनाफ़िक़ था कब नहीं आप के मुताबिक था बात बन ही न पायी जाने क्यों जबकि मैं आपके मुआफ़िक था।।साहनी
 शिनाख़्त यूँ गुलों से कराई गई मेरी कांटों के बीच ला के बिठाया गया मुझे।।साहनी
 जब अज़ल से ही खुशनसीब रहे। कैसे कह दें कि हम ग़रीब रहे।। ख़ानदानी रहे हसीब रहे। यानि अगियार भी हबीब रहे।। दौरे हाज़िर में सब नकीब रहे। हम ही हर हाल में अदीब रहे।। अपने रिश्ते भी कुछ अजीब रहे। लड़ झगड़ कर भी हम क़रीब रहे।। कुछ तो  शीरी जुबान है अपनी फिर गले से भी अंदलीब रहे।। होके मयख़्वार भी गये जन्नत हम न नासेह न तो ख़तीब रहे।। अज़ल/आरंभ, ग़रीब/दीन हीन, कमजोर, हसीब/श्रेष्ठ, सम्मानित , दौरे-हाज़िर/वर्तमान, नकीब/चारण, शीरी/मीठी, अंदलीब/बुलबुल, मयख्वार/शराबी, जन्नत/स्वर्ग, नासेह/धर्मोपदेशक, ख़तीब/फतवा जारी करने वाला सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 देखो ना ये वही जगह है जहाँ मिला करते थे हम तुम मगर अब यहाँ बाग नहीं है आमों के वह पेड़ नहीं हैं महुवे की वह गन्ध नहीं है आज यहां ऊँचे मकान हैं सुन्दर सुन्दर प्यारे प्यारे अगर प्रेम हो रह सकते हैं अपने जैसे कितने सारे तुम्हें याद है शायद हो तो कह सकती हो नहीं नहीं पर खोजें हम तो मिल सकता है बिसरा बचपन यहीं कहीं पर यहीं कहीं पर हम दोनो ने एक दूसरे को चाहा था तुमने अपनी गुडिया को जब मेरे गुड्डे से ब्याहा था सब कुछ याद मुझे है लेकिन तुमको भी  स्मृत तो होगा इसी जगह पर खुश होते थे सींकों के हम महल बनाकर और आज है रंगमहल पर वही नहीं है सूनी सूनी दीवारें हैं खुशी नहीं है वही नहीं है जिसको पाकर हम अनुबन्धित हो सकते थे जो सपने हमने देखे थे वह सपने सच हो सकते थे आज तुम्हारी आँखों मे कोई विस्मय है लोक-लाज से, शील-धर्म से प्रेरित भय है मै अवाक! होकर, औचक यह सोच रहा हूं तुम तुम हो या कोई और इसमे संशय है लिंग-भेद तो सम्पूरक है,आवश्यक है सत है, चित है, सदानन्द है सहज योग है, स्वयम सृष्टि है बचपन में हम अनावृत ही साथ पले है, साथ बढे़ है और आज परिधान सुशोभित हम दोनों की देह-यष्टि है  पर समा...
 उसको पता है छोड़ के जाने का फ़ायदा क्या है उसे यक़ीन दिलाने का फ़ायदा उसको अज़ीज़ है अग़र सोने का पींजरा क्या है उसे उड़ान सिखाने का फ़ायदा सुरेश साहनी
 कोई बेकल घूम रहा है बस्ती में। वो भी पागल घूम रहा है बस्ती में।। अब तो हर दल घूम रहा है बस्ती में।। मानो चम्बल घूम रहा है बस्ती में।। हवसी आदमखोर दरिंदे वहशी सब गोया जंगल घूम रहा है बस्ती में।। रोपे थे जो कीच कमल की आशा में बनकर  दलदल घूम रहा है बस्ती में।। बेटे भटक रहे हैं लाल दुपट्टों में माँ का आँचल घूम रहा है बस्ती में।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 बहिरे कान के मालिक बा झूठी शान के मालिक बा समझत बा ऊ जितला पर हिंदुस्तान के मालिक बा खेती घान के मालिक बा घर खरिहान के मालिक बा अब परधान के बेंवत का ऊ परधान के मालिक बा कब्जा बा हर डीहे पर उहे थान के मालिक बा उहो फुंकाई आख़िर में जे शमशान के मालिक बा चोर लुटेरा काल्हि रहल अब विधान के मालिक बा सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 एक बार एक तथाकथित संस्कृति साहित्य रक्षक और सुप्रतिष्ठ ऑनलाइन काव्यगोष्ठी चलाने वाले समूह से मुझे एकल काव्यपाठ का आमंत्रण मिला। मुझे भी अपने आप में बड़े कवि होने का गुमान हो आया। ये अलग बात है कि कोरोनज ऑनलाइन गोष्ठियों से तब तक विरक्ति अंकुरित हो चुकी थी। फिर भी संचालन करने वाले का आभामंडल  , नाम से जुड़े सहस्त्रों तथाकथित सम्मान, अनेकों कलमकारियों के स्नेहिल प्रशस्तियों से विभूषित स्वघोषित ब्रम्हाण्डीय व्यक्तित्व की आभासी उपस्थिति में काव्यपाठ की कल्पना ही रोमांचित करने वाली थी।मैंने आमंत्रण के प्रति आभार  दिनाँक सहित  पोस्ट कर दिया।  किंतु दो दिन बाद सन्देश आया कि इसे अपनी वाल के साथ अन्य ग्रुप में भी पोस्ट करें।फिर उसी दिन एक और सन्देश मुझे व्हाट्सएप पर प्राप्त हुआ जिसमें निर्देश दिया गया था कि आप समूह द्वारा प्रेषित अगले 150शब्दों के  संदेश को अपनी वाल और समूह की वाल पर पोस्ट करते हुए शेयर करें।अगले सन्देश ये समझिए कि मेरे नाम से जारी एक आभार पत्र था जिसमें मैं साहित्यिक अनाथ के रूप में समूह संचालक को साहित्य के भगवान के रूप में सम्बोधित कर रहा था कि ''...
 बेशक़ फ़ितरत से आवारा मैं ही था। घर के होते भी बंजारा मैं ही था।। बेशक़ अपनी मन्नत तुमको याद न् हो आसमान से टूटा तारा मैं ही था।। इन अश्कों के सागर किसने देखे हैं हैफ़ समुंदर जितना खारा मैं ही था।। मैं ही ढूंढ़ रहा था मुझको साहिल पर सागर मैं था और किनारा मैं ही था।।  जाने  कितने डूबे तेरी आँखों में केवल जिसने पार उतारा मैं ही था।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 मत जिओ यूँ  उदासियाँ लेकर बंद कमरे में खाँसीयां लेकर क्या मिलेगा जो सत्य बोलोगे वो भी बदले में फांसियां लेकर उसने फ़रियाद सुन तो ली लेकिन सो गया फिर उबासियाँ लेकर झोंपड़ी है चला दो बुलडोजर क्या मिलेगा तलाशियाँ लेकर इनकी क़लमें अभी क़लम कर दो कल न चीखें ख़ामोशियाँ लेकर कैसे माने ये कौम ज़िन्दा है इस क़दर ज़ख़्मे-यासियां लेकर साहनी वक़्त का सिकन्दर भी कब गया दास दासियाँ लेकर सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 अश्क क्यों हम बहाते फिरें। क्यों नहीं मुस्कुराते फिरें।। लोग समझेंगे मुमकिन नहीं दर्द किसको बताते फिरें।।
 आज फिर गुरु द्रोण को मेरी ज़रूरत पड़ गयी आज फिर अर्जुन उन्हें  मौके  पे  ठेंगा दे गया।। साहनी
 जिस्म पर झुर्रियां भी आयी हैं। चंद कमजोरियाँ भी आयी हैं।। कुछ कलाबाजियां हुयी हैं कम चंद मक्कारियाँ भी आयी हैं।।साहनी
 हम तेरे गाम तक न आ पाते। सूरते-आम तक न आ पाते।। इस नज़ाकत से तो दवा लेकर तुम यहाँ शाम तक न आ पाते।। हम ने आगाज़ कर दिया वरना तुम भी अन्जाम तक न आ पाते।। इश्क़ ने कुछ तो कर दिया काबिल वरना इल्ज़ाम तक न आ पाते।। हम को ईनाम से गुरेज़ रहा तुम भी इक़राम तक न आ पाते।। खाक़ फिरते गली में आवारा जब तिरे बाम तक न आ पाते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132

लेकिन अपनी जात अलग है।।

 बेशक़ उसकी बात अलग है। लेकिन अपनी जात अलग है।। क्यों उनको उनका हक़ दे दें हम पायें ख़ैरात अलग है।। हिज़्र सुबह से तारी है पर जाने क्यों ये रात अलग है।। रिश्तेदारी तो है उनसे पर अपनी औकात अलग है।। हम सब हैं गोया जन्नत में उसकी कायनात अलग है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हमनें की तदबीरें लेकिन। रूठी थी तक़दीरें लेकिन।। बेशक़ हम आईना दिल थे  पत्थर थी जागीरें लेकिन।। सोचा कुछ तो बात करेंगीं गूंगी थी तस्वीरें लेकिन।। किस्से तो अब भी क़ायम हैं टूट गईं तामीरें लेकिन।। राँझे अब भी जस के तस हैं बदल गयी हैं हीरें लेकिन।। छत साया देना चाहे है जर्जर हैं शहतीरें लेकिन।। यूँ सुरेश परतंत्र नहीं है मन पर हैं ज़ंजीरें लेकिन।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ये मत पूछो किधर मैं पल रहा  हूँ। दिया सा अपने दिल मे जल रहा हूँ।। कि हसरत से बियावाँ हो चुका था मगर उम्मीद से जंगल रहा हूँ।।साहनी
 आज कोई ग़ज़ल हुई ही नहीं। गो मुआफ़िक फसल हुई ही नहीं।। बात जिससे कि बात बन जाती ऐसी कोई पहल हुई ही नहीं।। फ़िर क़यामत पे हुस्न था राजी आशिक़ी की अज़ल हुई ही नहीं।। जबकि बोला था कल मिलेगा वो उसके वादे की कल हुई ही नहीं।। जो उन्हें नागवार गुजरी है बात वो दरअसल हुई ही नहीं।। जितना आसान सोचते हैं हम जीस्त इतनी सहल हुई ही नहीं।। साहनी कब खलल पसन्द रहा ज़िन्दगी बेखलल हुई ही नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर 945154532
 रहमो-नज़रे-करम अजी है क्या। उस मुक़द्दर से ज़िन्दगी है क्या ।। हम न ढोएंगे अब मुक़द्दर को रूठ जाने दो प्रेयसी है क्या।। किसलिये मय को दोष देते हो जानते भी हो बेख़ुदी है क्या।। कुछ तो तदबीर पर भरोसा कर सिर्फ़ तक़दीर की चली है क्या।। क्यों मुक़द्दर से हार मानें हम कोशिशों की यहाँ कमी है क्या।। जागता भी है सो भी जाता है ये  मुक़द्दर भी आदमी है क्या!! इतना मालूम है ख़ुदा अक्सर पूछता है कि साहनी है क्या।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 तमाशा आज बढ़ कर देखते हैं। चलो सूली पे चढ़ कर देखते हैं।। न सँवरे आज तक हम नफ़रतों से मुहब्बत से बिगड़ कर देखते हैं।। नहीं दिखते हैं अपने ऐब ख़ुद को हम औरों को तो गड़ कर देखते हैं।। बहुत कमजोरियां हैं अपने अंदर चलो इन से ही लड़ कर देखते हैं।। जमी है धूल मन के आईने पर फ़क़त हम तन रगड़ कर देखते हैं।। हमी दुश्मन हैं अपने साहनी जी कभी ख़ुद से झगड़ कर देखते हैं।।
 सिर्फ मज़हब की बात करते हैं। क्या कभी ढब की बात करते हैं।। जब वो यारब की बात करते है। कौन से रब की बात करते हैं।। ख़ुद ही कहकर  जहान को फ़ानी  ख़ुद के मनसब की बात करते हैं।। खाक़ मिल्लत को हौसला देंगे दौरे- अर्दब की बात करते हैं।। चश्मे-साक़ी में डूबकर नासेह ख़ूब मशरब की बात करते हैं।। मौत का दिन कहाँ मुअय्यन है आप किस तब की बात करते हैं।। है शबे-वस्ल छोड़ फ़िक़्रे-ज़हाँ सिर्फ़ मतलब की बात करते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 समतामूलक समाज के निर्माण का विचार ही रावण का दर्शन है।श्वेतकेतु और रावण दोनों ब्राम्हण चिन्तक हैं। एक अव्यवस्थित समाज को विवाह संस्था के माध्यम से सुव्यवस्थित करता है।दूसरा सर्वहारा सत्ता के लिये तंत्र का सहारा लेता है। रावण अशिक्षित नहीं है। उद्भट विद्वान है,महायोद्धा है।किंतु अपने भाई बहनों से प्रेम उसकी कमजोरी है। महान शैव शासक और वेदसम्मत शासन व्यवस्था देने वाले रावण ने कांगड़ा, काठमांडू, काशी और वैद्यनाथधाम में शिवविग्रहों की स्थापना की ,ऐसा जनश्रुतियां बताती हैं।
 वो मुझसे यही बोला क्यों अपनी बताता है। कविता तो उसी की है जो मंच पे गाता है।। घिस घिस के कलम प्यारे क्या कुछ भी मिला तुझको पर तेरे ही गीतों से कमाना मुझे आता है।। सुरेश साहनी कानपुर
 दुनिया में तेरी सच के परस्तार नहीं हैं क्या। मैं सच लिये फिरता हूँ ख़रीदार नहीं हैं क्या।।
 जबकि वो देवता न था फिर भी। आदमी तो बुरा न था फिर भी।। जाने कैसे वो दिल में आ पहुंचा उसपे मेरा पता न था फिर भी।। जाने क्या था कि वज़्म था रोशन घर तो अपना जला न था फिर भी।। वो गया तो गया उदासी क्यों जबकि अपना सगा  न था फिर भी।। ग़म ने बढ़ के गले लगा ही लिया इस क़दर राब्ता न था फिर भी।। कितने इल्ज़ाम दे गयी दुनिया साहनी बेवफा  न था फिर भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कल तक यहीं था अब वो जाने किधर गया है। इक शब्द का चितेरा निःशब्द कर गया है।। साहनी सुरेश
 भागे हम पर नादानी में रूठ गयी अम्मा। जाने कैसे बीच सफर में छूट गयी अम्मा।। बड़े बड़े तूफानों से टकरा जाती थी, पर अपनी सांसों से लड़ने में टूट गयी अम्मा।। Suresh Sahani  kanpur
 तुम्हारा रुष्ट हो जाना उचित है वहीं मेरा भी समझाना उचित है।। ज़रूरी है कि हम सोचें विचारें कहाँ तक बात मनवाना उचित है।। साहनी मुक्तक
 दसमुख होने से लगे रावण पर सौ दोष। एक ज़ुबाँ वाला नहीं होता  यों मदहोश।।
 ज़रा सी उम्र में इतने बहाने। तुम आगे क्या करोगे राम जाने।। मुहब्बत है तो रखना घर में दाने। वगरना मत निकल पड़ना भुनाने।। अभी मासूम कितने लग रहे हो कहीं लगना न तुम बिजली गिराने।। वहम है तुमसे कोई घर बसेगा उजड़ने तय हैं लेकिन आशियाने।। गये थे इश्क़ का इजहार करने जुबाँ से क्यों लगे हम लड़खड़ाने।। ज़रा सा काम है इक़रार करना लगाओगे सनम कितने ज़माने।। भले हो साहनी अच्छा ग़ज़लगो  न लग जाना उसे तुम गुनगुनाने।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 प्रिय हमें स्वीकार कर लो आज हमको प्यार कर लो हम तनिक रूठे हुये हैं इक ज़रा मनुहार कर लो।। मुद्दतों के बाद आयी है निशा इतनी सुहानी आज प्रिय साकार कर दो स्वप्न सारे आसमानी स्वत्व क्या सब कुछ भुलाकर
 आहो-रंजो-मलाल का हक़ था। कल हमें भी सवाल का हक़ था।। इल्म हर नौनिहाल का हक़ था। सब को ताजा ख़याल का हक़ था।। जो सरेराह कर रहे हो तुम क्या कभी यूँ बवाल का हक़ था।। हुस्न को था उरूज़ का हक़ तो इश्क़ को भी जवाल का हक़ था।। आज वो सब ज़लील हैं उनसे जिनको सच में जलाल का हक़ था।। अब तो फ़रियाद पर भी बन्दिश है कल हमें अर्ज़े-हाल का हक़ था।। आज तुम भीख कह के देते हो कल इसी रोटी दाल का हक़ था।। तुमने रातों की नींद क्यों छीनी ख़्वाब में तो विसाल का हक़ था।। चाय वाला भी बन सके हाकिम क्या ये कुछ कम कमाल का हक़ था।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जब कभी हम सुनाया करेंगे अमृत काल की कहानियां अपनी अगली की अगली पीढ़ी को और दिखाएंगे हर ऐसी सीढ़ी को जिसके सहारे कुछ लोग रातोरात फर्श से अर्श पर पहुंच जाया करते थे और सबसे बड़ी बात  जो हम उन नौनिहालों को बताया करेंगे कि सीढ़ियों के उस दौर में भी हम सांपों को चुना करते थे क्योंकि उन में हमें  अपनी जाति या धर्म दिखता था उस काल की चर्चा किया करेंगे कि कुछ तो जादू था जिसके कारण करोड़ों युवा बेरोजगार तो थे परन्तु वे असंतुष्ट नहीं थे वे बदहाल थे, लेकिन कभी भी सरकार से रोजगार नहीं मांगते थे क्योंकि वे जानते थे कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार ईश्वर देता है, सरकार नहीं... सचमुच अमृत काल ही था कितनी भी महंगाई हो लोग उसका कारण सरकार को नहीं मानते थे वे जानते थे कि  देश में बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, बदहाली और अव्यवस्था का एकमात्र कारण विपक्ष होता है और राजा भगवान......... सुरेश साहनी, कानपुर
 अभी चल रही हैं उम्मीदों की साँसें। चलो रोशनी में अंधेरे तलाशें।। अभी हँस रहे हैं मिलेगी जो फुरसत निकालेंगे आहें भरेंगे उसाँसें ।। चलो हम करें एक दूजे को रोशन हमें तुम संवारो तुम्हें हम तराशें।। ये सब जीस्त को काटने के लिये हैं खुशी की कुल्हाड़ी गमों के गड़ासें।।    ये किसने कहा है अंधेरा मिटेगा निकलती नहीं हैं कभी तम की फांसें।। यही है वफ़ा का सिला साहनी जी उठाते रहो आरजुओं की लाशें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 रामायण के पात्र हमें जीवन जीना सिखलाते हैं। राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु  मिटे मोर संदेहू।। राम रमापति का धनु ले तब संशय सहज मिटाते हैं।। शठ सन विनय कुटिल सन प्रीती सहज सरल अरु सुन्दर नीति बिनु भय होई न् प्रीति पाठ जग को सिखलाते हैं।।
 साहिलों से मुझे इस दर्ज़ा मिले हैं धोखे आके गिरदाब की बाहों में समाना ही पड़ा।।साहनी
 उस को रहना है उस मोहल्ले में सो सफाई से झूठ बोल गया। क़त्ल होते तो उसने देखा था नामे क़ातिल पे वो भी डोल गया।।साहनी
 राम कथा में राम पुरातन ध्यान धर्म हित नित नित नूतन एक राम घट घट में व्यापत कण कण व्यापी ईश चिरन्तन एक राम का सकल पसारा जीव जगत सब जड़ अरु चेतन एक राम सब जग से न्यारा कहत कबीर सुनाम सनातन सुरेश साहनी
 ग़ैर किनको बता रहे थे हम। मात अपनों से खा रहे थे हम।। कुछ न मांगेंगे मुतमईन रहें आप को आजमा रहे थे हम।। गाल कितने गुलों के सुर्ख हुए क्या कोई गुल खिला रहे थे हम।। दौरे-माज़ी में क्यों चले आये जब कहीं और जा रहे थे हम।। हिचकियों में ही नफ़्स टूट गयी क्या उसे याद आ रहे थे हम।। बेवफ़ाई पे उसकी क्या रोना इसलिए मुस्कुरा रहे थे हम।। इब्ने- आदम हुये अगर गिर कर तुम कहो कब ख़ुदा रहे थे हम।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ज़ख़्म मेरे हैं आशना इतने दूर इनसे हुआ नहीं जाता।।साहनी
 दर्द इतना नहीं मगर फिर भी। ज़ख़्मे-दिल का है कुछ असर फिर भी।। ये नहीं है कि वो ज़हर देगा कुछ दवाओं में है ज़हर फिर भी।। ख़ुद नहीं जानता है वो खुद को और बनता है नामवर फिर भी।। छोड़ना है सराय फ़ानी को बन रहे हैं सभी के घर फिर भी।। तीरगी का गुमान वाजिब है रात के बाद है सहर फिर भी।।
 नई तरह की अदावत से बाज आये हम तुम्हारे नखरों नज़ाकत से बाज आये हम।। जो सिर्फ़ अपने लिये हर समात चाहे है नई फसल की मुहब्बत से बाज आये हम
 घिरे अलसुबह ग़म के बादल घनेरे  जो तुम याद आये सवेरे सवेरे।।
 इश्क़ ज़ाया न कीजिये साहब। यूँ पराया न कीजिये साहब।। आपके ख़्वाब क्या क़यामत हैं यूँ जगाया न् कीजिये साहब।। इम्तेहां लीजै पर गुज़ारिश है आजमाया न कीजिये साहब।। ठीक है रोज़ याद मत करिये पर भुलाया न कीजिये साहब।। कितना वीरान हो गया है दिल आके जाया न कीजिये साहब।।
 इश्क़ में नाम क्या कमाओगे। ग़म के दरिया में ख़ुद को पाओगे।। इसमें वादे वफ़ा नहीं होते हमने माना कि तुम निभाओगे।। इश्क़ में कब कोई सँवरता है कौन सँवरा है कुछ बताओगे।।
 सच कहना अपनी ज़ुबान से। टकराना दुनिया जहान से।। ईसा मूसा गांधी जिसने सच बोला वो गया जान से।। सूट पहन कर अपनी तुलना क्या करना गाँधी महान से।। अब भी लोग डरा करते हैं खादी से चरखा निशान से।। हत्यारे भी चोला बदले अब दिखते हैं दयावान से।। राम रमैया फिर से भेजो कोई गांधी आसमान से।। सुरेशसाहनी, कानपुर
  तू ही ब्रह्मप्रिया मातु तू ही ब्रम्हरुपिणी है  तू ही ब्रम्हज्ञान की प्रदायिनी है शारदे। कलावती तू ही मातु तू ही कलाधीश्वरी है  तू ही हर कला की प्रसारिणी है शारदे। तू ही वाग्देवी मातु वागप्रिया तू ही मातु  7तू ही वाक्शक्ति की सुधारिणी है शारदे।। आज उपकार कर कण्ठ में विराज मातु  कृपा सिंधु है तू उपकारिणी है शारदे।।
 तुम हमारी स्वास में जब आ बसे। हम तुम्हारी धड़कनों में जा बसे।। इश्क़ की दुनिया हमारी है तो है लाख दौलत की कोई दुनिया बसे।। दिल कन्हैया का है या महफ़िल कोई रुक्मिणी राधा कि या मीरा बसे।। प्रेम की है वीथिका अति सांकरी इसमें सम्भव ही नहीं दूजा बसे।। उस गली में लेके चल डोली मेरी जिस गली में मेरा मनचंदा बसे।। सुरेश साहनी कानपुर
 तुझको तलाशना कोई मुश्किल न था मगर  हद है कि मैं ही मुझ से तलाशा नहीं गया।।
 हम अईसन प्रोफाइल बानी। अपने में अझुराईल बानी।। कइसे वाल देखायीं आपन टैगाइल टैगाइल बानी।।
 चलना है तो कहिए चले चलते हैं ज़हां से फिर ये न गिला हो मिरा रस्ता नहीं देखा।।साहनी
 आपकी तस्वीर ही में खो गये। हुस्न की तासीर ही में खो गये। खो गये हम ख़्वाब में जागे तो फिर ख़्वाब की ताबीर ही में खो गये।।साहनी
 कहीं भी गुल न गये फेंकने को दिल अपना वो तितलियां ही इधर से उधर मचलती रहीं।।साहनी
 रात भर का ही बसेरा है ज़हां। क्यों समझते हो कि डेरा है ज़हां।। है हमारा कुछ यहां कैसे कहें सिर्फ़ मेरा और तेरा है ज़हां।।
 सिर्फ़ ख़ुद के ही रह न जायें हम। कुछ तो औरों के काम आयें हम।। ख़ैर भगवान बन न पायेंगे ख़ुद को इन्सान तो बनायें हम।।साहनी
 चलो मुस्कुराने की आदत बनायें। कि हँसने हँसाने की आदत बनायें।। कभी मुस्कुराने की आदत बनायें। कभी खिलखिलाने की आदत बनायें।। ज़माना सुनेगा ठठाकर हँसेगा चलो ग़म छुपाने की आदत बनायें।। सफ़र में मक़ामात आते रहेंगे नये हर ठिकाने की आदत बनायें।। किसी के निवालों पे पलने से बेहतर कमाकर के खाने की आदत बनायें।। सभी को है जाना सुरेश एक दिन जब तो हँस कर ही जाने की आदत बनायें।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी भर जिसे गुनगुनाते रहे गीत मेरा उसी ने सुना ही नहीं वो मिला प्यार जिससे कि था ही नहीं प्यार मेरा जो था  वो मिला ही नहीं।।
 जिस्म फ़ानी तो मेरा खाक़ हुआ। क्या गिरेबान कोई चाक हुआ।। स्याह दामन तो कहाँ से होता बेवफ़ा और भी शफ्फाक़ हुआ।।
 सिंह कल तक सुप्त थे जो उठ चुके हैं  आज भारत कर चुका नवजागरण है। विश्वगुरू निर्देश पाकर  जग चलेगा आज उस अभियान का पहला चरण है राम का निर्माण उनका वनगमन था कर्बला इस्लाम् का पुनरागमन  था कुछ है यूंही हर युवा आतुर हवन को मृत्यु से मिल जीत को करना वरण है
 इक सत्य सुनो इस प्राणी से क्या क्या न मिला निर्माणी से फिर भी कृतज्ञता के दो स्वर प्रस्फुटित हुये कब वाणी से
 प्यार में नाम जैसे ही जपना पड़ा। जाने कितनों को अपना समझना पड़ा। स्वप्न साकार हो ना सके क्या हुआ तब हक़ीक़त को सपना समझना पड़ा।। मुक्तक
 हार मिली थी हार नहीं था कैसे मुझ पर दांव लगाया अग्नि सुता हूँ वस्तु नहीं मैं किस एवज में भाव लगाया द्यूत पाप है धर्म नहीं है हर युग  के प्रत्येक चरण में मैं दुर्योधन को भी वरती अगर जीतता उन से रण में कहाँ गया गाण्डीव तुम्हारा  गदा कहाँ है भीम तुम्हारी क्यों असहाय हुई सबला से पाँच पाँच पतियों की नारी
 फिर जाने की ऐसी भी क्या जल्दी थी इस आपाधापी में सब कुछ छोड़ गये तुमको मुड़ना था या राह बदलनी थी इस ज़िद में तुम अपनों से मुँह मोड़ गये।।साहनी
 एक प्रायोजित विज्ञापन सुन रहा था। जिसमें अरबी-फारसी के कुछ कम प्रचलित और क्लिष्ट शब्दों में कहे गये कुछ शेर पढ़कर पूछा जा रहा है कि नहीं समझे ना। अगर आपको इन अल्फाजों के मआनी मालूम होते तो ये आसानी से समझ मे आते ,और आप इन खूबसूरत शेरों का आनंद ले सकते थे।  अब ये तो एक विज्ञापन था , लेकिन किसी भी अजनबी ज़बान को नहीं समझ पाने का मतलब हम अज्ञानी तो नहीं हुये ना। और आप फ्रेंच में कोई कविता या आलेख सुनाकर मुझसे उसे समझने की उम्मीद भी कैसे कर लेते हैं। ये तो उसी प्रकार की शठता , धूर्तता या मूढ़ता है जैसे कि कोई अंग्रेजीदां किसी गाँव देहात में गिटपिटाता फिरे, और स्वयम को विद्वान समझने की भूल करे। ऐसी प्रवृत्ति के लोग ही प्यास लगने पर आब आब कहते हुये चल निकलते हैं।बिल्कुल कुछ ऐसे जैसा कि कहा गया है:-      काबुल गए मुग़ल बन आए, बोलन लागे बानी।  आब आब कर मर गए, सिरहाने रहा पानी।।   भाई मेरा तो साफ मानना है कि मैं जिस माटी में पला बढ़ा हूँ, या जिस माटी के जनसामान्य से मेरे/हमारे  सरोकार जुड़े हैं , मैं उनके लिये लिखता हूँ और उनके लिए ही लिखते रहने की तमन्ना है। ...
 क्या जयंती मनाना किसी देश की।। क्या जयंती किसी काल परिवेश की।। जन्म ही कब लिया मेरे देवेश ने अवतरण तिथि है ये मेरे विध्नेश की।।मुक्तक
 हम मनाते हैं बस देह का जन्मदिन। एक अतिथि के लिये गेह का जन्मदिन।। राग का जन्मदिन जन्मदिन द्वेष का  क्लेश का  जन्मदिन नेह का जन्मदिन।।साहनी मुक्तक
 ग़ज़ल  कोई नामानिगार बन बैठा कोई दीवानावार बन बैठा सोच में था कि कुछ बनूँ लेकिन दिल ही उनका शिकार बन बैठा।।साहनी
 ये नहीं है कि हम पढ़े न गये। कौन कहता है हम सुने न गये।। लोग गिर गिर पड़े वहाँ जाकर हम बुलाने भी गये न गये।।  ये नहीं था कि हम न बिक पाते हम ही नज्मों को बेचने न गये।। आपसे चाय की तलब में हम एक अरसे से मयकदे न गये।।साहनी
 वक़्त से बेहुज़ूर हूँ मैं भी।। इस तरह बेक़ुसूर हूँ मैं भी।। कौन मेरे क़रीब आयेगा आज तो ख़ुद से दूर हूँ मैं भी।। साथ यूँ भी नहीं चलोगे तुम और फिर थक के चूर हूँ मैं भी।। ताबिशें अपनी मत दिखा नादां जान ले कोहे तूर हूँ मैं भी।। उनकी मग़रूरियत से हर्ज़ नहीं क्योंकि कुछ कुछ ग़यूर हूँ मैं भी।। कोई दावा नहीं मदावे का इब्ने-मरियम ज़रूर हूँ मैं भी।। मत कहो साहनी अनलहक़ है पर उसी का ज़हूर हूँ मैं भी।। बेहुज़ूर/अनुपस्थित बेक़ुसूर/निरपराध ताबिशें/गर्मी कोहे-तूर/आग का पहाड़ मगरूरियत/घमण्ड ग़यूर/स्वाभिमानी मदावा/इलाज़ इब्ने-मरियम/पवित्र माँ का बेटा , मसीह अनल-हक़/अहम ब्रम्हास्मि, ईश्वर ज़हूर/प्राकट्य सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 होठ तुमको गुनगुनाना चाहते हैं प्रियतमें तुम गीत हो क्या। नैन जिस पर रीझ जाना चाहते हैं तुम वही मनमीत हो क्या।।  कर्ण मन के चाहते है  क्यों श्रवण  हर क्षण तुम्हारा देह लय क्यों ढूंढती है संगतिय आश्रय तुम्हारा  नाद अनहद जाग जाना चाहते हैं तुम वही संगीत हो क्या।।  प्रीति प्रण की जीत हो क्या........ क्यों रसेन्द्रिय चाहती है  नित्य प्रति वर्णन तुम्हारा कामना की कल्पना है रतिय आलिंगन तुम्हारा जो शिवे मधुयामिनी में गूँजता है तुम वही नवगीत हो क्या।। साधना अभिप्रीत हो क्या........
 कुछ लोग ख़ुद को वरिष्ठ, गरिष्ठ या साहित्य के क्षेत्र का बड़ा ठेकेदार होने के मुगालते में अक्सर नई कलमों के कार्यक्रम/आयोजन आदि के बारे में पोस्ट डालने पर नाराजगी या खिन्नता अथवा एतराज वाली पोस्ट्स डाला करते हैं। भाई इसका मतलब आप अदीब नहीं पूरी तरह से बेअदब ,  खैर जो भी हों हैं।    दरअसल मध्यप्रदेश के एक तथाकथित धुरन्धर हास्य कवि उनके व्हाट्सएप ग्रुप और फेसबुक पर अपने काव्य कार्यक्रमों के फोटो-बैनर इत्यादि पोस्ट कर देते होंगे। उन महाशय ने  नवोदितों को चेतावनी के लहजे में लिखा कि अगर वे इस पर उतर आये तो नवोदित परेशान हो जाएंगे क्योंकि उनके  सैकड़ों कार्यक्रम लगे रहते हैं। उन्होंने जाने कितनों को दिल्ली लेवल का कवि बना दिया । और जिस पर दृष्टि वक्र हुई तो उसका सिंह भी बकरी हो गया। वैसे  अगर ये इतने धुरन्धर होते तो इन्हें अपने बारे में बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बक़ौल डॉ सागर आज़मी    ," तुझे एहसास है गर अपनी सरबुलन्दी का       तो फिर हर रोज़ अपने हाथ नापता क्यों हैं।।,      मुझे लगा कि ऐसे लोगों को बताना जरूरी  है कि ...
 बारहा उसपे एतमाद आया। जिसको ख़ुद पर न ए'तिक़ाद आया आज मेले में वो भी याद आया। कितना तन्हा शबे-मिलाद आया।। नाम भी तो बदल लिया उसने फिर कहाँ वो इलाहाबाद आया।। जीस्त तो कब की जा चुकी थी पर बाद मरने के मुझको याद आया।।साहनी
 कौन मेरे क़रीब आयेगा आज तो ख़ुद से दूर हूँ मैं भी।। साथ यूँ भी नहीं चलोगे तुम और फिर थक के चूर हूँ मैं भी।। ताबिशें अपनी मत दिखा नादां जान ले कोहे तूर हूँ मैं भी।।
 फिर से अपना रुआब लेना है। हाँ हमें हर हिसाब लेना है।। वक़्त ने ही सवाल दागे थे वक़्त ही से जवाब लेना है।। इनसे कैलाश छीन कर उनसे अपना रावी चिनाब लेना है।। शेष कश्मीर ही नहीं तुझसे सिंध और पंजआब लेना है।।
 वे हिंदी के मित्र पुरुष हैं।  पर सेवा में पितृ पुरुष हैं।। साहित्यिक उत्सव करते हैं आयोजन अभिनव करते हैं नई कलम को सदा बढ़ाते निश्छल मन से उन्हें पढ़ाते भावुक सरल चरित्र पुरुष हैं। नव कवियों के पितृ पुरुष हैं।। सबको हैं उत्साहित करते  प्रतिभायें सम्मानित करते  पर सम्मान नहीं लेते हैं कुछ प्रतिदान नहीं लेते हैं सचमुच बड़े विचित्र पुरूष हैं। ये कविता के पितृ पुरुष हैं।। वाणीपुत्र विनोद त्रिपाठी हैं वरिष्ठ कलमों की लाठी नई कलम को यदि बल देते शुष्क कलम को भी जल देते मन के स्वच्छ पवित्र पुरुष हैं। वे भाषा के पितृ पुरूष हैं।। सुरेश साहनी
 वर्षों से अपनी ख़ामोशी सुनना सीख रहे हैं। अपनी बल खाती पेशानी पढ़ना सीख रहे हैं।।
 आज वो ही पढ़ी ग़ज़ल मैंने। जो किसी से सुनी थी कल मैंने।। वैसे पढ़ सकते थे ग़ज़ल अपनी पर बड़ों की करी नकल मैंने।।साहनी
 दिल ने ख़ादिम बना दिया मुझको। गो मुलाज़िम बना दिया मुझको।। इश्क़ है जुर्म और दुनिया ने एक मुजरिम बना दिया मुझको।। हम तुम्हारे वकील बन जाते तुमने मुल्ज़िम बना दिया मुझको।। नादिम/लज्जित
 इतना सारा कैसे तुम कह लेते हो। फिर भी प्यारा कैसे तुम कह लेते हो।। तुम कहते हो दिल इस पर कब राजी है सचमुच यारा कैसे तुम कह लेते हो।। जबकि सबका दिल तुम जीता करते हो ख़ुद को हारा कैसे तुम कह लेते हो।।   खोए रहते हो जब अपनी दुनिया मे  हो बंजारा कैसे तुम कह लेते हो।।। साहनी
 फरीहा नक़वी फरमाती हैं,"  हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं  इक दूजे को वक़्त नहीं दे पाते हैं ।। माज़रत के साथ कहना पड़ रहा है, "वक़्त बहुत है हम लोगों के पास मगर तोहफे में इक घड़ी नहीं दे पाते हैं।।, अब होना तो यही चाहिये था कि मामला शांत करने या कराने के लिए कुछ बड़ी लेखिकायें घड़ी दे सकती थीं। लेकिन फेसबुक को घड़ी विवाद में अखाड़ा बना दिया। जिसमें बड़े तो बड़े हम जैसे छुटभैये कवि भी कूद पड़े।लेकिन एक बात मेरी भी समझ में नहीं आयी कि हम भारतीय घड़ी को इतना उपयोगी क्यों मानते हैं। जापान का प्रधानमंत्री सोचता है जहाँ चार घण्टा लोग आरती नमाज में गुजार देते हैं ,वहाँ बुलेट ट्रेन की ज़रूरत आश्चर्य का विषय है। हमारे यहाँ तो लोग सालोसाल साधना में गुजार देते हैं। मुनव्वर साहब ने कहा भी है कि, " ये सोच कर कि तिरा इंतिज़ार लाज़िम है तमाम-उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा।।,     और हम है कि घड़ी को लेकर घड़ियाल हुए जा रहे हैं।हमारे शहर में दसियों घण्टाघर थे। आज शायद दो एक की सुईयाँ सही सलामत हों , और हम है कि एक घड़ी को लेकर खुद बिगबेन हुये जा रहे हैं।अरे इतना महत्वपूर्ण है तो कबीर की तरह...
 यूँ तो दुनिया को दिखते हैं चलते फिरते पूरे हम। पर अक्सर ख़ुद को मिलते हैं आधे और अधूरे हम।।
 अपने मुझे लगे हैं सारे बशर ज़हां के। जो ग़ैर मानते हैं जाने हैं वो कहाँ के।। यां छोड़ कर के जाना है जबकि जिस्मे-फ़ानी हम ख़ुद को मान बैठे मालिक हैं इस मकां के।।
 सच मे होते सभी अगर अपने। यूँ नहीं घोलते ज़हर अपने।। आदमी का कोई भरोसा क्या आज होते हैं जानवर अपने।। ज़िन्दगी चार दिन का डेरा है छूट जाते हैं दैरो-दर अपने।। ग़ैर की बदनिगाह क्या देखें अब तो होते हैं बदनज़र अपने।। कोई मरहम असर नहीं करता चाक करते हैं जब ज़िगर अपने।। तेरी दुनिया मे अजनबीपन है लौट जाऊंगा मैं शहर अपने।। थे सुकूँ की तलाश में लेकिन साहनी लौट आये घर अपने।। 14/04/2019 सुरेश साहनी,कानपुर
 ये नहीं है कि डर से बाहर हैं मुतमयिनी में घर से बाहर हैं क्या करेंगे तेरा अदम लेकर  जब अज़ल से दहर से बाहर हैं हम तो ख़ारिज हैं नज़्मगोई में  और ग़ज़लें बहर से बाहर हैं शेर होना है फिर तो नामुमकिन सारे जंगल शहर से बाहर हैं तेरे सागर में कुछ कमी होगी कितने मयकश गटर से बाहर हैं मंज़िलों की सदा से क्या लेना हम किसी भी सफ़र से बाहर हैं उस ने दुनिया से फेर ली नज़रें या कि हम ही नज़र से बाहर हैं मुतमईनी/संतुष्टि अदम/स्वर्ग अज़ल/सृष्टि के आरंभ, नज़्म/कविता ख़ारिज/अस्वीकृत, बहिष्कृत सागर/ शराब, मयकश/शराबी, गटर/नाला सदा/पुकार दहर/ बुरा समय या परिस्थिति सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बेशक़ कुछ दिन वेट करेंगे। पर ख़ुद को अपडेट करेंगे।। हिंदी डे आने वाला है खुल कर सेलिब्रेट करेंगे।।  हिंदी यूँ अपनायेंगे हम हिंदी में डीबेट करेंगे।। पिज्जा बर्गर खाएंगे हम चीनी डिश से हेट करेंगे।। अंग्रेजी है प्यार हमारा पर हिंदी संग डेट करेंगे।। मेर्रिज हिंदी में करनी है बेशक़ कुछ दिन वेट करेंगे।। पूर्ण स्वदेशी अपनाकर हम भारत अपटूडेट करेंगे।।
 क्या पता था कि यूँ निभाओगे। चार दिन में ही भूल जाओगे।। दूर हमसे चले तो जाओगे। क्या मगर ख़ुद से भाग पाओगे।। कुछ पशेमान तो ज़रूर होंगे जब ख़यालों में हम को लाओगे।। हम तुम्हें देवता बना दें क्या तुम नज़र से तो गिर न जाओगे।। जबकि ख़ुद पर तुम्हें यक़ीन नहीं फिर हमें खाक़ आजमाओगे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 तुम जो अहले वफ़ा रहे होते। फिर न यूँ आजमा रहे होते।। साथ हमने जो गीत गाया था अब भी तुम गुनगुना रहे होते।। रूठ कर जा रहे हो जैसे तुम हमको यूँ ही मना रहे होते।। उस हवेली में वो सुकून कहाँ कस्रे-दिल मे जो पा रहे होते।। तुम जो होते अदीब तो तय था हम न मातम मना रहे होते।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 नाहक़ इतनी ज़िम्मेदारी ले ली है। पदवी तुमने सचमुच भारी ले ली है।। कुछ कहते हो कुछ करते हो ये क्या है  उलझन काहे इतनी सारी ले ली है।।
 गीतों का राजकुमार नहीं केवल कविता का साधक हूँ मैं चारण गान करूँ कैसे में जनगण का आराधक हूँ मैं संघर्षों का पांचजन्य जन पीड़ाओं का गायक हूँ जब जन संघर्षों के स्वर में  जनपथ पर गाया जाऊंगा मैं सफल स्वयं को समझूँगा जब जन का कवि कहलाऊंगा साहनी
 अपने अधरों पे तुम न धरते तो श्याम हम बाँसुरी नहीं होते।। तुम न होते हुये भी होते हो    हम जहाँ होके भी नहीं होते।।
 भूख जैसी ये प्यास थी मेरी। ज़िंदगानी उदास थी मेरी।। ज़िंदगी की तलाश थी मुझको ज़िन्दगी को तलाश थी मेरी।।
 वो नीम की सन्टी से तशरीफ़ उधड़ जाना स्कूल मिरा गोया दहशत का इदारा था।।साहनी
 मैं जब मर मिटा हूँ तुम्हारी अदा पर किसे ज़िन्दगी की दुआ दे रहे हो।।
 वो ख़ुदा आदमी हुआ है क्या आदमी तो कभी ख़ुदा न हुआ।। आदमी है यहीं कहाँ कम है वो किसी काम का हुआ न हुआ।। वैसे दुनिया मुझे बुरी ही लगी  यूँ तो मैं भी कभी भला न हुआ।। उसमें लत है अगर भलाई की ये नशा तो कोई नशा न हुआ।।
 सिरफिरे शोर की शिकायत है चुभ रही है उसे ये ख़ामोशी।।
 हाँ तो गद्दी पे बाप बैठे हैं। हम समझते थे आप बैठे हैं।। इस तरफ कुछ अनाप बैठे हैं। तो उधर कुछ शनाप बैठे हैं।। लोग कल  भी पढ़े लिखे कब थे अब भी अंगूठा छाप बैठे हैं।। कौन है आज दीन का मुंसिफ सब लिये दिल में पाप बैठे हैं।। राम की राह पर नहीं चलते कर दिखावे की जाप बैठे हैं।। है बरहना सुरेश इस ख़ातिर आस्तीनों में सांप बैठे हैं।। सुरेश साहनी अदीब कानपुर, 9451545132 अनाप-शनाप /बेकार, दीन/ धर्म, मुंसिफ/ धर्माधिकारी, न्यायाधीश  बरहना/ नग्न
 हठधर्मी से करना आग्रह ठीक नहीं। और संत से तनिक दुराग्रह ठीक नहीं।। धर्म समन्वय सिखलाता है दुनिया को नुक्कड़ नुक्कड़ फैले विग्रह ठीक नहीं।। राग द्वेष मद मत्सर निंदा अनुचित है किसी भाँति रखना पूर्वाग्रह ठीक नहीं।। ज़्यादा चिन्ता संग्रहणी बन जाती है कुण्ठाओं का इतना संग्रह ठीक नहीं।। हां समष्टि के हित में लेना सम्यक है किंतु स्वयं के हित में परिग्रह ठीक नहीं।। कहा राम ने लक्ष्मण शर संधान करो किसी दुष्ट से अधिक अनुग्रह ठीक नहीं।। फिर सुरेश कैसे शायर हो सकता है गोचर है प्रतिकूल और ग्रह ठीक नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर  9451545132
 शोर है ग़मज़दा की ख़ामोशी। उफ्फ ये कातिल अदा की ख़ामोशी।। कब सुनेगा सदा की ख़ामोशी। कब मिटेगी ख़ुदा की ख़ामोशी।। कितनी हंगामाखेज है यारब इक तेरे मयकदा की ख़ामोशी।। शोर बरपा गयी मिरे दिल में क्यों मिरे हमनवा की ख़ामोशी।। उसकी मुस्कान बात करती है जैसे मोनालिसा की ख़ामोशी।। बोल पड़ती है उसकी गज़लों में साहनी की बला की ख़ामोशी।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
 कहा था  जिसने हमें रास्ता बतायेगा। कहाँ पता था वही शख़्स लूट जायेगा।। ख़ुदा ने गोल बनाई है इसलिये दुनिया भटक भी जाये जो चाहे तो लौट आयेगा।। दुकान अपनी चलाने को ही तो कहता है सराये-फ़ानी में मौला का घर बनायेगा।। तेरी मशीन है या सिक्का कोई इकपहलू जो तुझसे दाँव लगायेगा हार जायेगा।। ख़ुदा भी इब्न-ए-आदम से यूँ परेशां है किसी को अपना ठिकाना नहीं बतायेगा।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 कहा किसने कि मैं घबरा गया हूँ। वहां सह कर मैं दोबारा गया हूँ।। जो सुन्दर है भला होगा यकीनन इसी धोखे पे मैं मारा गया हूँ।।
 आशना होके अजनबी ही रही। ज़िन्दगी सिर्फ़ ज़िन्दगी ही रही।। ज़िन्दगी क्यों तुझे भुला दूँ मैं तू बुरे वक्त में बुरी ही रही।। और कितना तुझे मनाते हम जाने क्या था कि रूठती ही रही।।
 ख़्वाब में उनके नज़र आने की सूरत बनती। तब कहीं दिल के सनमखाने की सूरत बनती।। काश सूरत में भी होती कोई वाज़िब सूरत  मेरे शायर के जो फिर आने की सूरत बनती।।साहनी
 जो ग्रह नक्षत्र  हमारे नहीं मिले तो क्या। कि गुण दो चार क्या सारे नहीं मिले तो क्या वफ़ा के जुगनू तो चमकेंगे तीरगी में भी कि हम मिलेंगे सितारे नहीं मिले तो क्या।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 बेटे का बेटा फिर उनका पोता याद करे। यह काफी है उनको उनका अपना याद करे।। बेहतर होता उनके लेखन पर चर्चा होती लेकिन अपना बोला कोई कितना याद करे।। इतनी सारी कौन किताबें रखता है घर में चले गये अब बाबा जी का घण्टा याद करे।। लोग बिहारी , चन्द्रसखी , केशव को भूल गये इनको कल क्यों टोला और मुहल्ला याद करे।। पर सुरेश चाहेंगे बेशक़ अपने मत मानें लेकिन उनकी कविताओं को दुनिया याद करे।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 बिछड़ के फिर से मेरा कारवां मिला ही नहीं। मुझे ज़मीं तो मिली आसमां मिला ही नहीं।। बिछड़ गये जो दुआओं के हाथ फिर न मिले तपिश ओ धूप मिली सायबां मिला ही नहीं।। मिली भटकती मेरी तिश्नगी सराबों में मुझे नदी में भी आबे-रवां मिला ही नहीं।। सिफ़र है मेरे लिये सब जहान के हासिल अगर मुझे मेरा अपना ज़हां मिला ही नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश। एक सहज है निर्धन भारत दूजा लगे विदेश।। यह कर्तव्य युवाओं का है धर्मध्वजा लहरायें और हमारे बच्चे शासक बन कर हुक्म चलायें मोह त्याग हमने बच्चों को भेजा पढ़ें विदेश। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... जनता आठो याम निरन्तर पैदल चल सकती है जनरल डिब्बों के वग़ैर भी गाड़ी चल सकती है टोल नहीं लेंगे पैदल से ये है छूट विशेष। एक राष्ट्र में रहते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... इन अमीर बच्चों से शिक्षित भारत शिक्षित होगा निर्धन बच्चों की शिक्षा से देश अविकसित होगा भारत में महंगी शिक्षा लाएगी बड़ा निवेश। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... कब शिक्षा को है हमने पूँजी से बेहतर माना है शिक्षक को भी श्रमजीवी सम चाकर ही माना है शिक्षा से भी अधिक बड़ा है पूँजी का परिवेश।। एक राष्ट्र में दिखते हैं ज्यों अलग अलग दो देश।।.... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 चुप रहो इक मुकम्मल ग़ज़ल बन सके प्यार का खूबसूरत महल बन सके ताज तैयार होने तलक चुप रहो।। ख़्वाब तामीर होने तलक चुप रहो पूर्ण तस्वीर होने तलक चुप रहो घर के संसार होने तलक चुप रहो।। राज तकरार में हैं छुपे प्यार के प्यार बढ़ता नहीं है बिना रार के रार मनुहार होने तलक चुप रहो।। आप इनकार करते हो जब प्यार से प्रेम की जीत होती है इस  हार  से मन से इक़रार होने तलक चुप रहो।। चुप रहो प्यार होने तलक चुप रहो।।...... मेरे चर्चित गीत "चुप रहो' के कुछ अंश सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 उस भटकने का फ़ायदा ये मिला आज हम रास्ता बताते हैं।।साहनी
 आसमां चांद तले ले आओ। ये कि दो चार भले ले आओ।। एक कुनबा है ज़माना सारा फ़िक़्र पालो या पले ले आओ।। अपने रिश्तों में हरारत ऐसी तल्खियाँ जिससे गले ले आओ।। एक मज़हब तो हो ऐसा जिस पर नफरतों की न चले ले आओ।। एक सूरज तो उम्मीदों वाला पेशतर शाम ढले ले आओ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 वहीं लोग मंचों पे छाये हुये हैं।  जो ग़ैरों की नज़्में चुराये हुये हैं।। बताते हैं दुबई की फ्लाइट है उनकी टिकट गांव का पर कटाये हुये हैं।।साहनी
 वो निगाहें थीं या कि मधुशाला कैसे कह दूँ कि पी नहीं मैंने।।साहनी
 मिल रही है जो आशीष ले लीजिये। अपने गुरुओं की बख्शीश ले लीजिये।। अब के आयोजकों का भरोसा नहीं मंच से पेशतर फीस ले लीजिये।।साहनी
 राष्ट्रगान को गीत कह गए वे रक़ीब को मीत कह गए फैशन में हल्लेगुल्ले   को वे असली संगीत लिख गए।।
 चलते चलते जब भटक जाते हैं वो। जातो-मज़हब पर अटक जाते हैं वो।। उनके वादों पर यक़ीं कैसे करें थूकते हैं फिर गटक जाते हैं वो।।साहनी
 बेईमानी से  मेरा ईमान ले लेने का हक़। जिस तरह जैसे भी हो सम्मान ले लेने का हक़।। ठीक है खाने पे बंदिश सांस पर पहरे करो पर तुम्हें किसने दिया है जान ले लेने का हक़।।
 आदम था इन्सान नहीं था। जब तक उसको ज्ञान नहीं था।। इतना तय है आदम युग में धर्म न था ईमान नहीं था।। भ्रष्ट नहीं था तब का इंसां इस युग सा शैतान नहीं था।। सूरज था तब धरती भी थी अल्ला या भगवान नहीं था।। लोग सरल होकर जीते थे जब जीवन आसान नहीं था।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
 जान हो मेरे लव हो तुम। एक मेरे यारब हो तुम।। अब तुमसे ही निस्बत है गोया मेरे रब हो तुम ।। प्यार तुम्हारा मज़हब है पर मेरे मज़हब हो तुम।। तुमसे सब कुछ मिलता है मेरी ख़ातिर सब हो तुम।। दुनिया मेरी बदली है जादू सा करतब हो तुम।।
 होश में तो अना के साथ रहा। बेख़ुदी में ख़ुदा के साथ रहा।। मुझको कोई बला न छू पाई जब तलक वालिदा के साथ रहा।।
 मैं भी भूल रहा हूं तुझको तू भी याद न कर। जितना बिगड़ चुका काफ़ी है अब बरबाद न कर।।
 जाने कब से थी रिश्तों में  कड़वाहट ठंडक औ सीलन पास सभी मिल कर बैठे तो मानो इनको धूप मिल गयी।। उपहारों में घड़ियां देकर हमने बस व्यवहार निभाया कब अपनों के साथ बैठकर हमने थोड़ा वक्त बिठाया जब अपनों को समय दिया तो बंद घड़ी की सुई चल गई।। कृत्रिम हँसी रखना चेहरों पर अधरों पर मुस्कान न होना सदा व्यस्त रहना ग़ैरों में पर अपनों का ध्यान न होना साथ मिला जब स्मृतियों को मुरझाई हर कली खिल गयी।। फिर अपनों को अस्पताल में रख देना ही प्यार नहीं है अपनेपन से बढ़कर कोई औषधि या उपचार नहीं है छुओ प्यार से तुम्हें दिखेगा उन्हें जीवनी शक्ति मिल गयी।। सुरेश साहनी,kanpur
 मुझसे मेरे दिल की दूरी ठीक नहीं। यूँ रिश्तों में खानापूरी ठीक नहीं।। मजबूरी में रिश्ते ढोना ठीक मगर रिश्तों में कोई मजबूरी ठीक नहीं।।
 तुम कभी मेरी ज़िन्दगी थी क्या। ख़्वाब में ही सही मिली थी क्या।। क्यों उजाले नहीं मिले फिर से एक तुम से ही रोशनी थी क्या।। जो किसी ग़ैर की अमानत है सिर्फ़ मेरे लिये बनी थी क्या।। साहनी
 होश में हम कहाँ कभी आये। होश आये तो ज़िन्दगी आये।। धूप में रोशनी के क्या मानी तीरगी कर कि रोशनी आये।।
 दिल का कारोबार न करने लग जाना। देखो मुझसे प्यार न करने लग जाना।। आज तुम्हारे दिल में हूँ तो चलता है कल सबसे इज़हार न करने लग जाना।। प्यार मुहब्बत गोया इक बीमारी है ख़ुद को तुम बीमार न करने लग जाना।। ज़्यादा डर है खुश होकर  नादानी में तुम ख़त को अखबार न करने लग जाना।। मुझे समझना मत मजनूँ तुम भी खुद को लैला का अवतार न करने लग जाना।।
 भटक रहें ज्यों यायावर हम। गाँव गलीं वन नगर नगर हम।। दिये तुम्हीं ने घाव हृदय के और तुम्हीं थे अपने मरहम।।
 दूर सफ़र में इतना तन्हा होना भी। कुछ पाना है जाने क्या क्या खोना भी।। फूलों का बिस्तर अपनों को देने मे अक्सर पड़ता है काँटों पर सोना भी।। रोते रोते हँसने की मज़बूरी में पड़ जाता है हँसते हँसते रोना भी।। बेशक़ रिश्तों की बैसाखी मत लेना भारी होता है रिश्तों का ढोना भी।। बोझ दिमागो-दिल पर लेना ठीक नहीं सुख में दुख में पलकें तनिक भिगोना भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 दूर सफ़र में इतना तन्हा होना भी। कुछ पाना है जाने क्या क्या खोना भी।। फूलों का बिस्तर अपनों को देने मे अक्सर पड़ता है काँटों पर सोना भी।। रोते रोते हँसने की मज़बूरी में पड़ जाता है हँसते हँसते रोना भी।। बेशक़ रिश्तों की बैसाखी मत लेना भारी होता है रिश्तों का ढोना भी।। बोझ दिमागो-दिल पर लेना ठीक नहीं सुख में दुख में पलकें तनिक भिगोना भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी कुछ इस तरह गुज़रेगी ये सोचा न था हादिसे भी इस तरह पेश आयेंगे सोचा न था..... हादिसे दर हादिसे ज़िन्दगी दर ज़िन्दगी एक अनजाने सफ़र पर दौड़ती सी भागती सी और फिर ठहराव कुछ पल मृत्यु के संदेश गोया जीस्त क्या अनुबंध कोई रुढिगत आदेश गोया  पर अचानक ख़त्म कर दें ये कभी सोचा न था.... ज़िन्दगी के ज़ेरोबम क्या हैं मरहले गाम जैसे ग़म तुम्हारे हैं ख़ुशी के मुस्तक़िल पैगाम जैसे आज बरहम हैं जो हमसे कल मिलेंगे प्यार लेकर आज के इनकार कल फिर आयेंगे इक़रार लेकर टूट कर रिश्ते पुनः जुड़ जाएंगे सोचा न था...... ज़िन्दगी  कुछ इस तरह सुरेश साहनी कानपुर
 कुछ मुझे मेरे पास रहने हो। दो घड़ी ग़मशनास रहने दो। थक गया हूँ मैं ख़ुद पे हँस हँस कर इक ज़रा सा  उदास रहने दो।। रूह को पैरहन ज़रुरी था जिस्म को बेलिबास रहने दो।। मयकदे मेरी राह तकते हैं मेरे होठों पे प्यास रहने दो।। कैफ़े-फुरक़त मेरी तलब भी है इश्क़ हूँ  महवे-यास रहने दो।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हम जिन्हें देवता समझते हैं। देखना है वो क्या समझते हैं।। दरअसल वो है इश्क़ की लज़्ज़त आप जिसको अना समझते हैं।। हुस्न नेमत ख़ुदा की है हम पर आप क्यों कर बला समझते हैं।। शेर सुनकर जो हँस दिये गोया वो हमें मेमना समझते हैं।। आप शायद रदीफ़ भी समझे हम बहर क़ाफ़िया समझते हैं।। साहनी यूँ ग़ज़ल नहीं कहते बात का मर्तबा समझते हैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जाने क्यों मुझे लग रहा है कि मैं सपना देख रहा हूँ। जिस चाँद को अल्ला मिया ने इतना खूबसूरत बनाया था कि हमारे जैसे शायर मसलन ग़ालिब फ़िराक़ वग़ैरा वग़ैरा उसकी शान में जाने क्या क्या लिख गये हैं और लिख रहे है। लेकिन क्या बतायें।  बुजुर्गाने-दीन यूँ ही नहीं फरमा गये हैं कि हुस्न को पर्दे में रहना चाहिये। पर क्या किया जाये। आख़िर वो हो ही गया जिसका डर था। चाँद की सारी कमियां मन्ज़रे आम हो गयीं। अजी दाग धब्बे तो छोड़िये कील मुंहासे तक दिखायी दे गये।   अभी मैं कुछ सोच पाता कि उसके पहले ही मेरे बेसिक फोन की घण्टी बज पड़ी। में भी आश्चर्य में था कि कोई दस बारह साल हो गये इस फोन की घण्टी बजे हुये।भारत संचार निगम से इस फोन का सम्बंध-विच्छेद  बहुत पहले हो चुका है।अब पुराने बिल ,एक दूरभाष निर्देशिका और इस यंत्र के रूप में टेलीफोन विभाग की स्मृतियाँ ही शेष बची हैं।     खैर मैंने लेटे लेटे  स्पीकर ऑन कर दिया।उधर से जो बाइडेन साहब लाइन पर थे।बेचारे बोल पड़े यार आप लोग हमारे पीछे काहे पड़े हो?  मैंने कहा , सर! हम लोग वैसे पुरूष नहीं हैं जो आदमी के पीछे पीछे लुलुवाये फिर...
 उसके सांचे में ढल रहे हैं हम। मोम बन कर पिघल रहे हैं हम।। भीगता है वो गुलबदन लेकिन उसकी गर्मी में जल रहे हैं हम ।। हुस्न मंज़िल से बेखबर मत रह इश्क़ की राह चल रहे हैं हम।। हुस्न आएगा इश्क़ की जानिब अपना लहज़ा बदल रहे हैं हम।।साहनी आज अज़दाद की दुआओं से आसमानों को खल रहे हैं हम।। क्यों हमारी नकल करे है ख़ुदा क्या  किसी की नकल रहे है हम।।
 हरदम अपना सा लगे मुझे बुआ का गाँव।   जहँ मिलती पितु-स्नेह युत ममता वाली छाँव।।साहनी
 मुद्दतों नैन अश्क़बार रहे। अब कोई कितना सोगवार रहे।। ख़ुद को नाहक़ मकीन समझे थे जबकि हम इक किरायेदार रहे।। एक झटके में टूट जाना है लाख हम में कोई क़रार रहे।। पाँचवे दिन सुना वो आये थे हैफ़ दिन ज़िन्दगी के चार रहे।। हो ख़िज़ा चार सू  नहीं मतलब मयकदे में मगर बहार रहे।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जान करना निसार आता है। तो तुम्हें सच में प्यार आता है।। ताब मत देख मेरे चारागर इश्क़ में भी बुखार आता है।।
 ज़ख़्म दिलों के भरने वाले कम ही हैं। इश्क़ में जीने मरने वाले कम ही हैं।। सब कहते हैं तुम पर जान लुटा देंगे सच में ऐसा करने वाले कम ही हैं।।साहनी
 साधक बन करते रहे , नित निज भक्ति विकास। वर्धापन में हो सके तुलसी तुलसीदास।। सुरेश
 जीवन को उपहार लिखो कवि जितना हो  श्रृंगार लिखो कवि किन्तु देश जब संकट में हो तब केवल ललकार लिखों कवि बेशक़ सब कुछ प्यार लिखो कवि जीत हृदय की हार लिखो कवि पर जब बात देश की आये तन मन उस पर वार लिखो कवि प्रेयसि से मनुहार लिखो कवि मधुपुरित अभिसार लिखो कवि पर जब सीमा पर संकट हो बम बम का उच्चार लिखो कवि तोड़ कलम तलवार गहो कवि प्रलयंकर अवतार गहो कवि मधुर मिलन के गीत नहीं तब शब्दों में हुँकार लिखो कवि।। सुरेश साहनी, कानपुर
 अहंकारियों का बहुमत है भीष्म सदृश हर पात्र मौन है अपमानित हो रहे प्रश्नमुख मूकबधिर हो सत्र मौन है पक्ष भ्रमित प्रतिपक्ष मौन है मितदृष्टा हैं शासक सारे भला शकुनियों के जंगल में प्रजा द्रौपदी किसे पुकारे
 ये नंग वो धड़ंग हैं मालूम ही न था। दुनिया के इतने रंग हैं मालूम ही न था। है कोफ्त उससे मांग के मायूस जो हुए मौला के हाथ तंग है मालूम ही न था। दौलतकदो से यूं न मुतास्सिर हुए कभी फितरत से हम मलंग हैं मालूम ही न था।। है डोर उस के  हाथ सुना था बहुत मगर जीवन भी इक पतंग है मालूम ही न था।। ये छल फरेबो गम ये ज़हां भर की जहमतें सब आशिकी के अंग हैं मालूम ही न था।। सुरेश साहनी कानपुर
 लग रहा है  इस शहर में आज था कुछ हाँ अभी दो चार गज़लें  कुछ परीशां सी दिखी हैं एक ने तो एक होटल से निकल कर  उड़ रही काली घटाओं में उलझती  कुछ निगाहों के सवालों को झटक कर  बोझ सा अपने सरों पर  बाँध कर कुछ पर्स में  रखने के जैसा रख लिया है छन्द जैसा रोब रखते चंद मुक्तक कुछ पुरानी शक्ल के दोहे निकलकर जो बिगड़कर सोरठा से हो चुके हैं नए गीतों को कहन समझा रहे हैं उस ज़माने की कहानी जिनको शायद आज अगणित  झुर्रियों ने ढक लिया है और अब उन हुस्न के ध्वंसावशेषों की-  कथाओं को नए परिवेश में  फिर से सुनाकर सोचते हैं ग़ज़ल उन पर रीझकर के  ढूंढ़कर फिर सौप देगी  कल के उजले और काले कारनामे जो कि अब अस्तित्व अपना खो चुके हैं  कल शहर फिर कुछ करेगा....  सुरेश साहनी ,कानपुर
 बस काफिया रदीफ मिलाना ग़ज़ल नहीं बस आय बाय साय सुनाना ग़ज़ल नहीं।। नाजिल न हो तो कोई जरूरी नहीं गजल कोई गणित का जोड़ घटाना ग़ज़ल नहीं।। साहनी
 हम न होंगे तो सब कहेंगे क्या। यूँ भी कहने को सब रहेंगे क्या।। हम तो धारों से लड़ने आये हैं आप धारा में ही बहेंगे क्या।। ठीक है ग़म में रह लिये दो दिन दर्द ये उम्र भर सहेंगे क्या।। यूँ भी जिसको हमारी फिक्र नहीं उसकी फुरकत में हम दहेंगे क्या।। इश्क़ में कब भला उरूज मिला इश्क़ में साहनी लहेंगे  क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हम न होंगे तो सब कहेंगे क्या। यूँ भी कहने को सब रहेंगे क्या।। हम तो धारों से लड़ने आये हैं आप धारा में ही बहेंगे क्या।। ठीक है ग़म में रह लिये दो दिन दर्द ये उम्र भर सहेंगे क्या।। यूँ भी जिसको हमारी फिक्र नहीं उसकी फुरकत में हम दहेंगे क्या।। इश्क़ में कब भला उरूज मिला इश्क़ में साहनी लहेंगे  क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ज़ख्म कोई उभर गया मुझमें। दर्द ही दर्द भर गया मुझमें।। आज क्यों अजनबी लगा मुझको आख़िरश क्या अखर गया मुझको।। मेरा किरदार जबकि अनगढ़ था जाने कैसे सँवर गया मुझमें।।
 ज़िन्दगी की तरफ़ न लौटे क्या। हम खुशी की तरफ़ न लौटे क्या।। आप ही तो हमारी मंज़िल हैं आप ही की तरफ़ न लौटे क्या।। क्यों अंधेरे के हम परस्त रहें रोशनी की तरफ़ न लौटे क्या।।
 घर आँगन दालान बिक गया  पुरखों का सम्मान बिक गया। पण्डित मुल्ला बिके सभी पर शोर मचा इंसान बिक गया।।...... उस गरीब की जान बिक गयी अच्छी भली दुकान बिक गयी नाम बिक गया शान बिक गयी क्या अब कहें जुबान बिक गयी घर परिवार बचा रह जाये इसी लिए ईमान बिक गया।।1 शिक्षा अब व्यापार बन गयी राजनीति रुजगार बन गयी लाठी गोली बंदूकों से मिल जुल कर सरकार बन गयी गण गिरवी है तंत्र बिका तो बाबा तेरा विधान बिक गया।।2 सैनिक मरा किसान मर गया। बूढ़ा और जवान मर गया।। राजनीति रह गयी सलामत बेशक़ इक इंसान मर गया।। फिर गरीब की हस्ती क्या है वहाँ जहाँ धनवान  बिक गया।।3.......... नाम बचा तो शेष बिक गया सरकारी आदेश बिक गया  विस्मित जनता सोच रही है क्यों इनका गणवेश बिक गया ध्वज को कौन सम्हालेगा अब जबसे बना प्रधान बिक गया।।4 सुरेश साहनी , कानपुर
 हम न होंगे तो सब कहेंगे क्या। यूँ भी कहने को सब रहेंगे क्या।। हम तो धारों से लड़ने आये हैं आप धारा में ही बहेंगे क्या।। ठीक है ग़म में रह लिये दो दिन दर्द ये उम्र भर सहेंगे क्या।। यूँ भी जिसको हमारी फिक्र नहीं उसकी फुरकत में हम दहेंगे क्या।। इश्क़ में कब भला उरूज मिला इश्क़ में साहनी लहँगे क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 तुम तो मुझसे ख़फ़ा रहोगे ही। मेरे अपने हो क्या रहोगे ही।। कोई सूरत नहीं सिवा जबकि फिर भी मेरे सिवा रहोगे ही।। मुझ को फिर भी यक़ीन है इतना तुम तो अहले वफ़ा रहोगे ही।। एक दूजे की जान हैं जब हम क्यों किसी और का रहोगे ही।। ठीक है मेरी जान ले लेना तुम तो शायद सदा रहोगे ही।। साहनी क्यों न ग़ैर की सोचे तुम अगर बेवफा रहोगे ही।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ये उलटबांसिया नहीं कोई। साफ़ कहना भी है ग़ज़लगोई।। ज़िन्दगी उम्र भर नहीं जागी मौत भी उम्र भर कहाँ सोई।। किसके शानों पे  बोझ रख देता लाश अपनी थी  उम्र भर ढोई।। इश्क़ का दाग है कहाँ छुटता तन चदरिया रगड़ रगड़ धोई।। साहनी कब हँसा था याद नहीं जीस्त लेकिन कभी नहीं रोई।। उलटबांसी/ व्यंजना की एक पद्धति, घुमा फिरा कर कहना ग़ज़लगोई/ग़ज़ल कहना शानों/कंधों जीस्त/जीवन सुरेश साहनी कानपुर
 मैं न कहता था कि वो मेरा है। भ्रम ये रहता था कि वो मेरा है।। दरअसल वो तो मेरा था ही नहीं मैं समझता  था कि वो मेरा है।।
 नूर आंखों में उतर आता है रोशनी  बन के बिखर जाता है। जब भी अंधियार घना छाता है तू मुझे याद बहुत आता है।।
 बस चमत्कार पर यकीं करिये। जब भी सरकार पर यकीं करिये।। दूसरे भी बुरे नहीं लेकिन अपने किरदार  पर यकीं करिये।।साहनी
 मालुम है फिर भी नादानी करता हूँ। अक्सर ख़ुद की नाफरमानी करता हूँ।। दिल दरिया है फिर भी तिश्ना कह कह कर जब तब ख़ुद को पानी पानी करता हूँ।।
 यूँ न नफ़रत से बात कर उससे। इक मुहब्बत से बात कर उससे।। तरबियत बातचीत में झलके इस शराफत से बात कर उससे।। शादमानी मिज़ाज में आये इस तबियत से बात कर उससे।। उस  रईसी पे बदगुमां मत हो दिल की दौलत से बात कर उससे।। बेवफाई तो कल करेगा ही आज उल्फ़त से बात कर उससे।। बात करनी है तो तसल्ली रख यूँ न उज़लत से बात कर उससे।। साहनी इक फकीर है बेशक़ उसकी अज़मत से बात कर उससे।। तरबियत/ संस्कार बदगुमां/ भ्रमित उज़लत/जल्दबाजी अज़मत/श्रेष्ठता,महानता सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 राम के नाम से अलग है क्या। देश में राम से अलग है क्या।।     मेरे अन्तस में राम बसते हैं दिल मेरा धाम से अलग है क्या।। धर्म के नाम एकमत हैं सब सत्य है नाम अरु असत हैं सब।। राम कहते हैं वे नहीं सब कुछ राम बस राम हैं भरत हैं सब।।
 पास अपने प्यार का ठेका नहीं। दिल है ये बाज़ार का ठेका नहीं।। मैं लिखूं और नाम आये ग़ैर का शायरी गुलज़ार का ठेका नहीं।। इक दफा खुलकर इसे जी लीजिये ज़िन्दगी हर बार का ठेका नहीं।। दिल पे उनके सिर्फ मेरा नाम है आशिक़ी अगियार का ठेका नहीं।। सब मिटायें तब तो होंगे पाप कम ये किसी अवतार का ठेका नहीं।। कर दे खुशियों के हवाले ज़िन्दगी तू दिले-बेज़ार का ठेका नहीं।। साहनी का दिल अनारो ले भी ले सैकड़ो बीमार का ठेका नहीं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 न जाने कैसे निगाहों ने कह दिया उनसे जो बात अपनी ज़बाँ से अदा न हो पाई।।साहनी
 धर्मचर बन ज़िन्दगी के हर चरण को पार करना ज़िन्दगी से प्यार करना रूठना मनुहार करना प्रीति करना रार करना मृत्यु तब स्वीकार करना..... धर्म हित काया मिली है ज़िन्दगी सहधर्मिणी है साधना में सहचरी है अनुचरी है रक्षिणी है प्राण प्रिय तन मन वचन से पूर्ण अंगीकार करना डूब कर अभिसार करना मृत्यु तब स्वीकार करना...... जन्म से तो शुद्र है तन, है तरूणता वैश्य  होना क्षात्र है परिवार पालन धर्म पालन विप्र होना धर्म का आचार करना धर्म के अनुसार करना मृत्यु का सत्कार करना मृत्यु तब स्वीकार करना......... सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 जिसे देख कर यती मुनी तक सूध बुध सब बिसरा देते हैं जिसे देख कर सुर नर किन्नर सारे होश गंवा देते हैं दानव देव तपस्वी सबका जो विचलित करता है तन मन नर नारायण सबके दिल पर निर्विवाद है जिसका शासन मायापति मनुसुत मायावी सब जिसका  अनुचर दिखता है। वह भोला बन पूछ रहा है क्या कवि सच को सच लिखता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सुबह से रात तक चलते रहो बस। रवायत मान कर ढलते रहो बस।। ज़माने को कहाँ परवाह कुछ भी नहीं खलता तुम्हीं खलते रहो बस।। गुहर पाना है तो गहरे में जाओ वगरना हाथ ही मलते रहो बस।। लहू आंखों से उगलेगा शरारे नहीं तो ख़ुद को ही छलते रहो बस।। शज़र बनते हैं दाने खाक़ होकर ख़ुदी रखना है तो गलते रहो बस।। अँधेरा भी मिटेगा साहनी जी चिराग़ों की तरह जलते रहो बस।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अपना कोई गाँव नहीं है। बनजारा हूँ ठाँव नहीं है।। जैसा हूँ वैसा दिखता हूँ ज़्यादा बोल बनाव नहीं है।। क्यों उनसे दुर्भाव रखूँ मैं बेशक़ उधर लगाव नहीं है।। पैरों में छाले हैं लेकिन मन पर कोई घाव नहीं है।। मन क्रम वचन एक है अपना बातों में बिखराव नहीं है।। जीवन है इक बहती नदिया  पोखर का ठहराव नहीं है।। राम सुरेश न मिल पाएंगे अगर भक्ति में भाव नहीं है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 दिल के जख्मों को सजाना खल गया। उनको मेरा मुस्कुराना खल गया।। कल जिन्हें था उज़्र मेरे मौन पर आज हाले-दिल सुनाना खल गया।। उनसे मिलने की खुशी में रो पड़ा पर उन्हें आँसू बहाना खल गया।। उनकी यादेँ, उनके ग़म ,तन्हाईयां उनको मेरा ये खज़ाना खल गया।। चाहता है  ये शहर  हम छोड़ दें क्या उसे मेरा ठिकाना खल गया।। इनको मेरी चंद खुशियां खल गयीं उनको मेरा आबोदाना खल गया।। आख़िरश उनको ज़नाज़े में मेरे इतने सारे लोग आना खल गया।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 आशना अपनी रही है ज़िन्दगी। हैफ़ फिर भी अजनबी है ज़िन्दगी।। घुल रहे हैं ज़िन्दगी में सुर मधुर कैसे कह दें बेसुरी है ज़िन्दगी।। राब्ता जिनसे न था अपना कोई आज वो लगने लगी है ज़िन्दगी।। और फिर नाशाद रहती कब तलक आज हल्का सा हँसी है ज़िन्दगी।। आज तक गोया थी उनकी मुन्तज़िर साथ पा कर चल पड़ी है ज़िन्दगी।। सिर हथेली पर लिये फिरते हैं हम उस गली में मौत भी है ज़िन्दगी।। सिर्फ़ वो हैं बात ऐसी भी नहीं उनकी ख़ातिर साहनी है ज़िन्दगी।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ये जो नज़रों में बांकपन आया। इश्क़ वालों से हैं ये फ़न आया।। इश्क़ का दिल अज़ल से हैं यकसां हुस्न का दिल ही दफ़्फ़तन आया।। फिर वो काली है तो बुराई क्या  जब है मजनूँ का उस पे मन आया।।
 सम्हल भी रहे हैं मचल भी रहे हैं। कदम डगमगाते हैं चल भी रहे हैं।। ज़फ़ा छोड़ कर भागना चाहती है वफ़ा वाले रहबर उछल भी रहे हैं।। कोई तूर ग़ैरत का कैसे दबेगा शुआओं के चश्मे उबल भी रहे हैं।। यक़ीनन यहाँ ग़र्क़ होगा अंधेरा मशालों के लश्कर निकल भी रहे हैं।। खरामा खरामा बदलना है मंज़र के हालात करवट बदल भी रहे हैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हुस्न को यार मिल ही जायेंगे। दिल के बीमार मिल ही जायेंगे।। जब उसे सादगी पसंद नहीं कुछ रियाकार मिल ही जायेंगे।। इश्क़ अव्वल गुनाह कहने को लोग दो चार मिल ही जायेंगे।। आज सोचा है बेच दें ख़ुद को कुछ खरीदार मिल ही जायेंगे।। घर से निकलो तो इश्क़ की जानिब राह में दार मिल ही जायेंगे।। हर सहाफ़ी क़लम न बेचेगा चन्द्  खुद्दार मिल ही जायेंगे।। साहनी की ग़ज़ल में भी लायक कुछ तो अशआर मिल ही जायेंगे।।
 अभी जाने का मौसम तो नहीं था। कहर ढाने का मौसम तो नहीं था।। ये बेमौसम की बारिश और बिजली घटा छाने का मौसम तो नहीं था।। चलो चलते हैं मयकश उस गली में यूँ मैखाने का मौसम तो नहीं था।। घिरे घन श्याम बिन राधा उदासी ये बरसाने का मौसम तो नहीं था।। तमन्नाओं के दिल लरजे हुए हैं ये बल खाने का मौसम तो नहीं था।। बहुत अच्छा लगा तुम याद आये भुला पाने का मौसम तो नहीं था।। जनाजे को मेरे क्यों कर सजाया तेरे आने का मौसम तो नहीं था।। सुरेश साहनी,कानपुर
 वेदनाओं के हलाहल सम अमिय पीते रहे हैं। उम्र भर हम मृत्यु के आगोश में जीते रहे हैं।। क्या सतत है जन्मना या मृत्यु को स्वीकार करना नाम करना जगत में या सिंधु भव का पार करना जब कभी उत्तर मिले तो उलझनों का बोझ लादे प्रश्न घट भर सब समाधानों के घट रीते रहे हैं।। आत्मा कैसे अमर है किस तरह काया क्षणिक है ब्रह्म सह अस्तित्व जिसका क्यों कहा माया क्षणिक है क्यों क्षणिक आनंद कहकर मन को भरमाया गया है क्यों सचिद आनंद से वंचित भ्रमित भीते रहे हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 इश्क़ में हम सुधर गये तो फिर। इस नज़र से सँवर गये तो फिर।। सिर्फ़ इतने पे उफ़ कहा तुमने हम जो  हद से गुज़र गये तो फिर।। कैसे ऐलान कर दें उल्फ़त का कल कहीं तुम मुकर गये तो फिर।। ये न कहना कि हुस्न फ़ानी है इश्क़ वाले भी मर गये तो फिर।। कैसे माने कि दिल न तोड़ोगे टूट कर हम बिखर गये तो फिर।। फिर निभाने की कोई हद होगी तुम उसे पार कर गये तो फिर।। हम तो दुनिया से जूझ सकते हैं तुम  ज़माने से डर गये तो फिर।। आज रुसवाईयों का डर है ना कल को हम नाम कर गये तो फिर।। साहनी तुम से सच न बोलेंगे कल नज़र से उतर गये तो फिर।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 कौन लेकर   बहार   आया है। है वो  मोहूम या कि साया है।। कैसे कह दूँ मैं सिर्फ़ ख़्वाब उसे हर तसव्वुर में वो  नुमाया है।। खार कुछ  नर्म नर्म   दिखते हैं कौन    फूलों में   मुस्कुराया है।। दस्तकें बढ़ गयी हैं खुशियों की किसने दिल का पता बताया है।। बेखुदी क्यों है इन हवाओं में क्यों फ़िज़ा  पर खुमार छाया है।। आज वो भी बहक रहा होगा जिसने  सारा ज़हां  बनाया है।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 परायेपन का मंज़र कब मिला है। तुम्हें अपनों से खंज़र कब मिला है।। नदी ने कब कहा तिश्ना रहो तुम तुम्हें प्यासा समुन्दर कब मिला है।। तुम्हेँ किसने कहा तुम जान दे दो मुझे जीने का मंतर कब मिला है।। तुम्हें मैं  बेतहाशा प्यार करता मगर इतना भी अवसर कब मिला है।। विरासत में मिले कब फूल मुझको तुम्हें काटों का बिस्तर कब मिला है।। अदीबों से तुम्हें नफ़रत है माना कहो मुझ सा सुखनवर कब मिला है।। रक़ाबत क्यों करे हो साहनी से मुक़ाबिल  तुमसे होकर कब मिला है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 जीत कर हारना पड़ा मुझको। मन मेरा मारना पड़ा मुझको।। सच के दुश्मन कहीं ज़ियादा थे झूठ स्वीकारना पड़ा मुझको।। मुझ पे हावी था कोई डर इतना ख़ुद को  ललकारना पड़ा मुझको।। दे दिया मन छटाँक के बदले भाव से प्यार ना पड़ा मुझको।। साहनी फूट फूट कर रोया और पुचकारना पड़ा मुझको।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 उम्र इक उलझनों को दी हमने। ज़िन्दगी अनमनों को दी हमने।। अपनी इज़्ज़त उछलनी यूँ तय थी डोर ही बरहनों को दी हमने।। गालियाँ दोस्तों में चलती हैं पर दुआ दुश्मनों को दी हमने।। भूल कर अपने ख़ुश्क होठों को मय भी तर-दामनों को दी हमने।। सोचता हूँ तो नफ़्स रुकती है सांस किन धड़कनों को दी हमने।। जानकर भी ख़मोश रहने की कब सज़ा आइनों को दी हमने।। क्यों तवज्जह सराय-फानी पर साहनी मस्कनों को दी हमने।। बरहनों/ नंगों, नग्न ख़ुश्क/ सूखे तरदामन/ भरे पेट,  गुनाहगार नफ़्स/ प्राण मस्कन/ मकान सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 और हम खुद पे ध्यान कैसे दें। अपने हक़ में बयान कैसे दें।। पास अपने ज़मीन दो गज है आपको आसमान कैसे दें।। गांव की सोच जातिवादी है उनको बेहतर प्रधान कैसे दें।। रूह तन्हा पसंद है अपनी तुमको दिल का मकान कैसे दें।।  एक चंपत हमें सिखाता है ठीक से इम्तेहान कैसे दें।। वो भला है मगर पराया है उसको दल की कमान कैसे दें।। भेड़िए गिद्ध बाज तकते हैं बेटियों को उड़ान कैसे दें।। ये अमीरों के हक से मुखलिफ है सबको शिक्षा समान कैसे दें।। साहनी ख़ुद की भी नहीं सुनते उल जुलूलों पे कान कैसे दें।। सुरेश साहनी कानपुर
 दिल में शायद बसा हो डर कोई। यूं ही जाता नहीं मुकर कोई।। आप को भी यकीन आ जाता     उसकी बातों में था असर कोई।। शोर बरपा है कुछ परिंदों में गिर गया है बड़ा शजर कोई।  आशियाने तमाम उजड़े हैं जब बसा है नया शहर कोई।। सिर्फ़ उल और जलूल लिखता है साहनी भी है सुखनवर कोई।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 कैसे मानूं कि है जहान तेरा। जब कहीं भी पता मिला न तेरा।। क्या है तेरा यहाँ पे क्या न तेरा। ये ज़मी है कि आसमान तेरा।। इक ज़रा रह ज़मीन पर कुछ दिन टूट जाएगा हर गुमान तेरा।। जबकि दुनिया सराय फ़ानी है क्यों बनाते हैं सब मकान तेरा।। साहनी किस यक़ीन से लिखता जब मिला ही नहीं निशान तेरा।। सुरेश साहनी
 हम कहाँ से तुझे तबाह लगे। जबकि अगियार सरबराह लगे।। झूठ हर सू से बादशाह लगे। सब ज़हां उसकी बारगाह लगे।। जाने क्यों कर तेरी तवज्जह भी दुश्मनों की ही रस्मो-राह लगे।। शेख जायज़ है जो भी जन्नत में हमको कैसे न वो मुबाह लगे।। चश्मे कौसर को खाक़ पायेगा मयकशी जब तुझे गुनाह लगे।। बहरे-ग़म से उबारने वाला मयकदा क्यों न ख़ानक़ाह लगें।। दामने-रिन्द पे सवाल किया जा तुझे साहनी की आह लगे।। अगियार/ ग़ैर का बहुवचन,  सरबराह/प्रभावशाली, सरदार,   सू/ तरफ़   ज़हां/संसार    बारगाह/दरबार तवज़्ज़ह/ आकर्षण , ध्यान वरीयता,    रस्मो-राह /मेलजोल    शेख़/ धर्मोपदेशक  जायज़/ उचित   जन्नत/स्वर्ग,  मुबाह/ शरीयत के अनुसार चश्मे-कौसर/ शराब का झरना, स्वर्ग की नहर   मयकशी/ शराब पीना बहरे-ग़म/ दुख का सागर   मयकदा/मधुशाला    ख़ानक़ाह/ मठ दामने-रिन्द/ शराबी का दामन  सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 गर्मी पर कविता पढ़नी है। झूठी कोई कथा गढ़नी है।। सत्य कहूँ तो मैंने जाड़ा गरमी आतप नहीं सहे हैं बचपन से लेकर हम अब तक सुख सुविधा में पले बढ़े हैं यदा कदा जो चले धूप में आँचल में ले लिया छांव ने तपती धूप दहकते पत्थर नहीं पता कब सहे पाँव ने जरत रहत दिन रैन सुना है जलते हैं दिन रैन सुने हैं पर हम ने इन सब से ज्यादा एसी कूलर फैन सुने हैं बड़े लोग एसी में रहकर समर हॉट सब लिख लेते हैं नकली मड हॉउस बनवाकर पर्यावरण बचा लेते हैं कोलतार की सड़क बनाते सिर पर गिट्टी मोरंग लादे कड़ी धूप में बीस रुपये पर लदा हुआ रिक्शा धकेलते तपते खेतों में दिन दिन भर ले हल बैल हाँफते रहना जब ऐसा जीवन जी लेना तब गरमी पर कविता लिखना वरना प्यारे गरमी  क्या है ये तो पड़नी ही पड़नी है। उघरे अंत न निभने वाली झूठी कथा नहीं गढ़नी है कविता हमें  नहीं पढ़नी है।
 उन्हें पता है हम ज़िंदा हैं लोकतन्त्र मर गया अगर क्या...... जब चुनाव जितने चुनाव तुम  करवा डालो हमें फ़र्क़ क्या हम बैठे हैं अभी स्वर्ग में बाद मृत्यु के स्वर्ग नर्क क्या पाप पुण्य हैं विषय तुम्हारे फल प्रतिफल का हमको डर क्या....... हम अर्जुन हैं हम भारत हैं हम सूरत हैं हम काशी हैं अधोमुखी है गति विपक्ष की हम ईडी हैं अविनाशी हैं हम क्या हैं यह हमें पता है तुम क्या हो हैं तुम्हें खबर क्या..  ... कल परिणाम वही आएगा जो कल हम लाना चाहेंगे पा लेंगे हम सहज तंत्र से जो फल हम पाना चाहेंगे जनता कहाँ जनार्दन होगी जनता हमसे बढ़कर है क्या....... सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 दिल बहला कर चल देते हो। बात  बना कर   चल देते हो।। दिल का दर्द कहें क्या तुमसे तुम कतरा कर चल देते हो।। दिन  भर यहाँ वहाँ भटकोगे रात बिताकर   चल देते हो ।। हम   खोये  खोये  रहते हैं तुम क्या पाकर चल देते हो।। क्यों उम्मीद जगाते हो जब हाथ बढ़ा कर चल देते हो ।। ख़ाक मुहब्बत को समझे हो आग लगा कर चल देते हो।। अब ख़्वाबों में यूँ मत आना नींद उड़ा कर चल देते हो ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 कौन कहता है हुनर बिकता है। जब भी बिकता है बशर बिकता है।। कब दवा खाने शिफा देते हैं  हर कहीं मौत का डर बिकता है।। है सियासत की गिरावट बेशक़ गाँव बिकता है शहर बिकता है।। पहले बिकते थे ज़मी और मकां अब सहन बिकते हैं घर बिकता है।। तब धरोहर थे गली के बरगद आज आँगन का शज़र बिकता है।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मैं उनको जाना पहचाना लगता हूँ। क्या मैं सचमुच मेरे जैसा लगता हूँ।। मेरे जैसे कितने चेहरे है मुझमें क्या जैसा हूँ कुछ कुछ वैसा लगता हूँ।। किस को ढूंढ़ रहा हूँ मैं आईने में क्या मैं ख़ुद में खोया खोया लगता हूँ।। तुम अपना कहते हो हैरत होती है मैं मुझको ही आज पराया लगता हूँ।। घर है रिश्ते-नाते हैं याराने हैं फिर क्यों इतना तन्हा तन्हा लगता  हूँ।। मेरा पता ठिकाना दुनिया जाने हैं मैं ही मुझको भूला भटका लगता हूँ।। जब सुरेश से सारी दुनिया जलती है हैरत है मैं तुमको अच्छा लगता हूँ।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हम थे किस को तलाशने निकले। कब थे ख़ुद को तलाशने निकले।। अपने दिल मे न झाँक पाये हम और उसको तलाशने निकले।। कब ख़िरदमंद को मिला है वो कौन रब को तलाशने निकले।। हम थे पागल सराय-फानी में अपने घर को तलाशने निकले।। क्यों न मिलता सुरेश दुख तुमको तुम थे सुख को तलाशने निकले।। साहनी
 कभी तो धूप के साये से निकलो। अंधेरों से न कतराए से निकलो।। तुम्हारी चाल है नागिन सरीखी चलो बेशक़ न बलखाये से निकलो।। चलो सड़कों पे तो बिंदास जानम न झिझको और न घबराए से निकलो।। चलो हमपे खफ़ा हो लो चलेगा मगर ख़ुद पर  न झुँझलाये से निकलो।। फ़साना रात का सब जान जायें कम अज कम यूँ न अलसाये से निकलो।। लगे है तुम से ताज़ादम ज़माना जहां तक हो न कुम्हलाये से निकलो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 हद है तुम स्कूल गये हो। और सबक भी भूल गये हो।। इश्क़ नहीं हो पाया अब तक फिर तो वहां फ़ुज़ूल गये हो।। प्रेम नदी में उतरे भी हो या बस उसके कूल गये हो।। काँधे पर  सिर धरवाया है या बाहों में झूल गये हो।। दिल् की गद्दी तब मिलती है यदि होकर माज़ूल गये हो।। दिल की राह मिलेगी कैसे कब होकर मकतूल गये हो।। कल सुरेश दुनिया थूकेगी लिख जो ऊलजुलूल गये हो।। फ़ुज़ूल/व्यर्थ, कूल/किनारा माज़ूल/विनम्र,पदच्युत, मक़तूल/जिसका क़त्ल हुआ हो ऊलजुलूल/व्यर्थ, निरर्थक सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 आज के युग की सभी सम्वेदनाएँ मर चुकी हैं। या कि केवल युग बचा है चेतनाएं मर चुकी हैं।। लोग जिंदा हैं कि मुर्दा कुछ पता चलता नहीं है यातना इतनी सही है वेदनायें मर चुकी हैं।। जी रहे हैं दास बनकर अपनी आदत में है वरना अर्गलायें सड़ चुकी हैं, श्रृंखलायें मर चुकी हैं।। प्रार्थना जो कर रहे हो कब सुनी किस देवता ने देवता क्या हैं कि इनकी आत्मायें मर चुकी हैं।। याचना से कुछ न होगा क्रांति के नारे उछालो मंत्र कुंठित हो चुके हैं अब ऋचाएं मर चुकी हैं।। रास्ता यह सिंधु देगा है हमें सन्देह राघव आज भय बिनु प्रीति की सम्भावनायें मर चुकी हैं।। सुरेश साहनी
 हुस्न पर  एतबार ले डूबा। इश्क़ दिल का क़रार ले डूबा।। पार साहिल से सिर्फ़ कुछ पहले नाख़ुदा बन के यार ले डूबा।। तू है बीमार जिस मसीहा का उसको तेरा बुखार ले डूबा।। क्या लहर क्या भँवर कहाँ तूफां दिल की किश्ती को प्यार ले डूबा।। हम खिजाओं को खाक़ तोहमत दें जब चमन ही  बहार ले डूबा।। साहनी कैसे बेमुरव्वत को दिल दिया था उधार ले डूबा।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 मुझको नया मिलता है हर बार कोई मुझमें। अक्सर किया करता है यलगार कोई मुझमें।। आराम नहीं देता वो मेरे ख़यालों को मुझसे लिया करता है बेगार कोई मुझमें।। आंखों में नहीं आता पलकों से नहीं जाता क्या इतना ज़ियादा है बेदार कोई मुझमें।। आख़िर ये मेरे अपने किसके लिये पागल है क्या इतना मोहतबर है क़िरदार कोई मुझमें।। दर्पन में मेरे अक्सर मैं ही नहीं दिखता हूँ क्या मुझसे बड़ा भी है अनवार कोई मुझमें।। मिल्लत के लिये मेरे भगवान जगा देना मिसबाह कोई मुझमें अंसार कोई मुझमें।। सुरेश साहनी, कानपुर  9451545132
 तुम कहो तो ग़ज़ल कहें तुमको। एक खिलता कंवल कहें तुमको।। चाँद लिखना अगर पसंद न हो चांदनी का बदल कहें तुमको।। उलझनों से निजात देते हो राहतों की रहल कहें तुमको।। ताज से भी कहीं हसीं हो तुम क्यों न कन्चन महल कहें तुमको।। जबसे देखा है चैन गायब है क्यों न दिल का खलल कहें तुमको।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 सब को लगता है पा के बैठे हैं। जबकि हम सब गँवा के बैठे हैं।। दौलते-दिल लुटा के बैठे हैं। क्या लगा दिल लगा के बैठे हैं।। होम करने में कुछ तो जलना था हम भी दामन जला के बैठे हैं।। ज़िन्दगी का सफ़र तो क़ायम है तुम को लगता है क्या के बैठे हैं।। हम पे इतना यक़ीन ठीक नहीं हम हमें आज़मा के बैठे हैं।। भीड़ में खुद से लापता थे हम यूँ नहीं दूर आ के बैठे हैं।। साहनी
 उन ख़्वाबो-ख्यालों में उलझने से रहे हम। उल्फ़त के सवालों में उलझने से रहे हम।। अब सेब से गालों पे फिसलने नहीं वाले फिर अबरयी बालों में उलझने से रहे हम।। तक़दीर के साहिल पे यां गिरदाब है इतने दुनिया तेरी चालों में उलझने से रहे हम।। दुनिया के फ़रेब हैरतो-अंगेज हैं यूँ भी सो  हुस्न के जालों में उलझने से रहे हम।। अब शहरे-ख़मोशा के अंधेरे हैं नियामत इन स्याह उजालों में उलझने से रहे हम।। जब साहनी उलझे हैं मसाइल में ज़हां के तब और बवालों में उलझने से रहे हम।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 चलेगा यदि हमें दुनिया न समझे। खलेगा तू अगर अपना न समझे।। हमें हरगिज़ ज़हां सच्चा न समझे। हमारा यार तो झूठा न समझे।। हमें ख़ुद्दारियों की छत मिली है ज़माना क्यों हमें उजड़ा न समझे।।
 तुम नहीं तो क्या सहारे और हैं। और सूरज चाँद तारे और हैं।। क्या गुमाँ है इक तुम्हारे और हैं। सुन कि कितने ही हमारे और हैं।। तुमने क्या सोचा कि हम जां से गये अपनी किस्मत के सितारे और हैं।।  हुस्न पर बेशक़ ज़माना हो फिदा इश्क़ वालों के नजारे और हैं।। कुछ तो होंगे साहनी अहले-वफ़ा किस तरह कह दें कि सारे और हैं।। सुरेश साहनी, कानपुर
 बेवज़ह की रार में मारा गया। मैं यहाँ बेकार  में मारा गया।।  कोई सुनता है ये कैसे मान लें सर अगर दीवार में मारा गया।। बस अहिल्या ही सदा शापित हुई इंद्र कब व्यभिचार में मारा गया।। देह का क्या बेवज़ह रूठी रही और मन मनुहार में मारा गया।। काश नफ़रत सीख जाता साहनी इब्तिदा-ए- प्यार मे मारा गया।। सुरेश साहनी, कानपुर
 सब न बेचो दुकानियों के लिये। कुछ तो रख लो निशानियों के लिये।। इतने ज़्यादा भी बाँध मत बाँधो क्या बचेगा  रवानियों  के लिये।। यूँ भी दुनिया बदलने वाली है तुम न होगे कहानियों के लिये।। रास्ते राजपथ के छोड़ो भी इन उमड़ती जवानियों  के लिये।। एक दिन लोग तुम पे थूकेंगे आज की लन्तरानियों  के लिये।। सुरेश साहनी
 लाख मुझको नदी समझता था पर मिरी तिश्नगी समझता था।। दिल उसे देवता न कह पाया वो मुझे आदमी समझता था।। दिल पे जो ज़ख़्म दे गया इतने इक वही दर्द भी समझता था।। दरअसल नूर था उसी दर पर मैं जहाँ तीरगी समझता था।। आशना है अज़ल से वो मेरा और मैं अजनबी समझता था।। उफ़ वो गुफ्तारियाँ निगाहों की मैं उसे ख़ामुशी समझता था।। हाँ बहुत बाद में कहा उसने इक उसे साहनी समझता था।। सुरेश साहनी अदीब 9451545132
 लोग बेशक़ जहीन थे उनमें। बस वहाँ आदमी न थे उनमें।। जाने कितने महीन थे उनमें। हम ही तशरीह-ए-दीन थे उनमें।। तीरगी सी लगी न जाने क्यों सब सितारा-जबीन थे  उनमें।। जो भी मिलता था बस तकल्लुफ़ से लोग थे या मशीन थे उनमें।। सब वहाँ शोअरा थे अच्छा है पर कहाँ हाज़रीन थे उनमें।। महफ़िले-कहकशां कहें क्यों कर दिल के कितने हसीन थे उनमें।। सब थे तुर्रम सभी सिकन्दर थे साहनी ही रहीन थे उनमें।। ज़हीन/समझदार महीन/शातिर,कूट चरित्र तशरीह-ए-दीन/ स्पष्ट,ईमान वाले तीरगी/अंधेरा सितारा-जबीन/रोशन मस्तक तकल्लुफ़/औपचारिकता शोअरा/कविगण हाज़रीन/दर्शक वृन्द कहकशां/निहारिका, आकाशगंगा तुर्रम/बड़बोले सिकन्दर/महत्वाकांक्षी रहीन/बंधुआ, साधारण सुरेश साहनी , कानपुर 9451545132
 जाने कितने ज़ख़्म दिल पर दे गया। जो  मुझे  ग़म के  समुंदर  दे  गया।। ले गया  नींदे   उड़ाकर  बेवफा पर मुझे ख़्वाबों के लश्कर दे  गया।। गुलबदन कहता था मुझको प्यार से हाँ वही कांटों का बिस्तर दे  गया।। ले गया  सुख चैन जितना ले सका उलझनें लेकिन बराबर दे  गया।। सादगी क़ातिल की मेरे देखिये मुझको उनवाने- सितमगर दे गया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अक्सर ये उजाले हमें गुमराह करे हैं। ख़ुदग़र्ज़ हवाले हमें गुमराह करे हैं।। भाई न बिरादर न हैं ये काफ़िले वाले ये ख्वामख्वाह साले हमें गुमराह करे हैं।। क़ातिल पे भरोसा हुआ जाता है सरीहन जब चाहने वाले हमें गुमराह करे हैं।। मत ढूंढिये मत खोजिये यूँ चटपटी खबरें ये मिर्च-मसाले हमें गुमराह करे हैं।। शफ्फाक लिबासों से ज़रा दूर रहा कर दिल के यही काले हमें गुमराह करे हैं।। गुमराह/भ्रमित,  ख़ुदग़र्ज़/स्वार्थी  हवाले/सम्बन्ध, दृष्टान्त ख़्वाहमखाह/जबरदस्ती, इच्छा के बग़ैर सरीहन/जानबूझकर शफ्फाकलिबास/ सफेदपोश, उजले वस्त्र धारी सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी जब मकान छोड़ेगी। क्या कोई भी निशान छोड़ेगी।। फिर कोई भी ना रह सके उसमें करके ये इत्मिनान छोड़ेगी।। सुख सुकूँ सब तो छीन लेती है क्यों वो रत्ती सी जान छोड़ेगी।। क्या अना इस क़दर ज़रूरी है ज़िन्दगी कब गुमान छोड़ेगी।। ला मकां का नहीं पता कोई पर तुझे लामकान छोड़ेगी।। सुरेश साहनी, कानपुर
 केहू बिखर गइल इहाँ केहू उजर गइल। देखलीं न केहू प्यार में परि के संवर गइल।। मिलला के पहले इश्क में दीवानगी रहल भेंटली त सगरो भूत वफ़ा के उतर गइल।। अईसन न जिन्नगी मिले केहू के रामजी जवानी उहाँ के राह निहारत निकर गइल।। कहलें जफ़र की जीन्नगी में चार दिन मिलल चाहत में दू गइल  दू अगोरत गुजर गइल।। उनका के देख लिहलीं करेजा जुड़ा गइल उ हमके ताक दिहलें हमर प्रान तर गइल।। भटकल भीनहिये सांझ ले उ घर भी आ गईल बा बड़ मनई जे गिर के दुबारा सम्हर गईल।। हम आपके इयाद में बाटी इ ढेर बा इहे बहुत बा आँखि से दू लोर ढर गइल।। - Suresh SahaniU
 गो क़दम देखभाल कर रखते दिल कहाँ तक सम्हाल का4 रखते आख़िरी सांस की दुहाई दी क्या कलेजा निकाल कर रखते कोई सुनता तो हम सदाओं को आसमां तक उछाल कर रखते ज़िन्दगी दे रही थी जब धोखे मौत को खाक़ टाल कर रखते फ़ितरते-हुस्न जानते तब क्यों इश्क़ का रोग पाल कर रखते नेकियाँ पुल सिरात पर मिलती हम जो दरिया में डाल कर रखते साहनी मयकदे में आता तो दिल के शीशे में ढाल कर रखते साहनी सुरेश कानपुर
 हमारे दिन हमें क्यों कर पता हो। अगर कल दुर्दशा का तर्जुमा हो।। मुहब्बत कर के गलती की है मैंने महज इस जुर्म की कितनी सजा हो।। हमें तुम याद क्यों आते हो इतना तुम्हे जबकि हमारी याद ना हो।। ये मत सोचो तुम्हे मैं चाहता हूँ हमें तुमने अगर धोखा दिया हो।। मेरे स्कूल में पढ़ता था वो भी बहुत अच्छा था जाने अब कहाँ हो।। सुरेशसाहनी, कानपुर
 आज अपने ख़िलाफ़ है सब कुछ मूड क्या आज ऑफ है सब कुछ मेरा उसका बंटा हुआ क्या है प्यार में हाफ हाफ है सब कुछ गोष्ठी है कोई न बोलेगा खूब कहिये मुआफ़ है सब कुछ नींद जाने किधर है क्या बोलें यूँ तो बिस्तर लिहाफ है सब कुछ मेरा दिल मेरी जेब आईना आज मौसम सा साफ है सब कुछ सुरेशसाहनी, कानपुर
 कमी कोई न थी अपने मिलन के वादों में। कमी थी सिर्फ़ मेरे और तेरे इरादों में।। कि तेरे शहर का मौसम यूँही नहीं नम है मैं अश्क़बार हुआ हूँ तेरी ही यादों में।। सुरेश साहनी
 अब झूठों का ज़ोर सुनाई पड़ता है। सच कितना कमजोर सुनाई पड़ता है।। भीड़भाड़ में जब मैं तन्हा होता हूँ सन्नाटे का शोर सुनाई पड़ता है।। प्यार मुहब्बत की तोपों के जादू से दिल्ली से लाहौर सुनाई पड़ता है।। कहता तो है मैं किसान के हक़ में हूँ क्यों मुझको कुछ और सुनाई पड़ता है।। चोरों लम्पट और उठाईगीरों का किस्सा चारो ओर सुनाई पड़ता है।। काहे को साहब की जय चिल्लाते हो मुझको आदमखोर सुनाई पड़ता है।। तुम सुरेश को चौकीदार बताते हो ईंन कानों को चोर सुनाई पड़ता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 झूठ जीते कि कोई सच हारे। कौन सोचे है यहाँ इतना रे।। वो फ़सादात पे आमादा है तो जाये दीवार पे सर दे मारे।। आग पानी से कहाँ बुझती है जाके  लाये न  बड़े अंगारे।। रात की सुब्ह नहीं दिल्ली में लाख सूरज हो यहां भिनसारे।। है हुक़ूमत यहाँ अंधेरों की रोशनी हो तो कहाँ से प्यारे।। सुरेश साहनी, कानपुर
 नयन यूँ ही नहीं हैं डबडबाये। बहुत दिन हो गये थे मुस्कुराये।। तुम्हारी याद कब आयी न पूछो बताओ क्या मुझे तुम भूल पाये।। कभी तुम आशना थे ये तो तय है पता मेरा कहाँ से ढूंढ लाये।। जो दिल के घाव हैं भरने लगे हैं न याद आकर कोई फिर से सताये।। जिसे दिल से गये मुद्दत हुई हो बला से वो इधर आये न आये।। सुरेश साहनी
 जितनी तेजी से विज्ञान तरक्की कर रहा है।मानव उससे भी दोगुनी तेजी से विज्ञान पर लदा जा रहा है।कम्प्यूटर और अभियांत्रिकी का गठजोड़ एक दिन इंसान को पूरी तरह बेरोजगार बना देगा, इस बात को लेकर ऑस्ट्रेलिया अमेरिका के लोग भले चिन्ता करें विकासशील और पिछड़े देश इसी तरह की चर्चा को प्रगति मान कर कहते हैं कि, तुम तो बौड़म हो। तुम्हे कछू पता भी है अमरीका जापान में लोग अपने हाथ से शौचते भी नहीं हैं।   ख़ैर हम तो विश्वगुरु ठहरे। अपने देश में भी अपने हाथ से काम करने वाले बहुत अच्छे नहीं माने जाते । इसीलिए हमारे नए नेतागण रोज़गार के हर क्षेत्र में संख्याबल कम कर रहे हैं।उनका साफ साफ कहना है करप्शन फ्री समाज की स्थापना तभी सम्भव है जब सेवाओं का सांगोपांग मशीनीकरण कर दिया जाये।   और इस की शुरुआत भारत में लगभग हो चुकी है। इस समय देश में सेवा के लगभग हर क्षेत्र में छंटनी का दौर चल रहा है और नयी भर्तियों पर रोक तो पहले से लगी हुई है।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारतीय रेल है। एक समय मे दुनिया मे सबसे अधिक रोजगार देने वाला संस्थान में अब  गार्ड्स और लोको पायलट की भर्तियां भी नहीं के बराबर हो र...