एक बार एक तथाकथित संस्कृति साहित्य रक्षक और सुप्रतिष्ठ ऑनलाइन काव्यगोष्ठी चलाने वाले समूह से मुझे एकल काव्यपाठ का आमंत्रण मिला। मुझे भी अपने आप में बड़े कवि होने का गुमान हो आया। ये अलग बात है कि कोरोनज ऑनलाइन गोष्ठियों से तब तक विरक्ति अंकुरित हो चुकी थी। फिर भी संचालन करने वाले का आभामंडल  , नाम से जुड़े सहस्त्रों तथाकथित सम्मान, अनेकों कलमकारियों के स्नेहिल प्रशस्तियों से विभूषित स्वघोषित ब्रम्हाण्डीय व्यक्तित्व की आभासी उपस्थिति में काव्यपाठ की कल्पना ही रोमांचित करने वाली थी।मैंने आमंत्रण के प्रति आभार  दिनाँक सहित  पोस्ट कर दिया।  किंतु दो दिन बाद सन्देश आया कि इसे अपनी वाल के साथ अन्य ग्रुप में भी पोस्ट करें।फिर उसी दिन एक और सन्देश मुझे व्हाट्सएप पर प्राप्त हुआ जिसमें निर्देश दिया गया था कि आप समूह द्वारा प्रेषित अगले 150शब्दों के  संदेश को अपनी वाल और समूह की वाल पर पोस्ट करते हुए शेयर करें।अगले सन्देश ये समझिए कि मेरे नाम से जारी एक आभार पत्र था जिसमें मैं साहित्यिक अनाथ के रूप में समूह संचालक को साहित्य के भगवान के रूप में सम्बोधित कर रहा था कि ''प्रभु आप साहित्याकाश के वह दिनमान हैं जिसकी ज्योति से दिनकर और प्रसाद भी आलोकित होते हैं।आपकी कृपा का नाम रतन पाकर कितनी अनामिकाएँ मीरा की भांति दिग्दिगन्त में तारिकाओं की श्रेणी में सुस्थापित हैं।आपके पावन वैश्विक समूह द्वारा अवसर पाकर मैं कृतकृत्य हूँ।आप हर प्रकार से साहित्य और संस्कृति के शलाका पुरुष हैं जो इस युग में माँ भारती का उद्धार करने के लिए अवतरित हुए हैं।"

   किन्तु मुझ मूढ़मति की आँखों पर उनके अनुरूप अज्ञान का परदा पड़ा हुआ था। सो मैंने उनके इस निर्देश का पालन नहीं किया। 

खैर काव्यपाठ की निर्धारित तिथि और समय के अनुसार मैं एक ब्लूटूथ डिवाइस और पत्नी द्वारा हाइपोथिएटेड मोबाइल फोन लेकर उपस्थित था।समूह पर बमुश्किल लाइव तो हो गया लेकिन भगवान अपने गणों समेत कहीं जाकर बैठ कर  किंचित किसी  रम्भा का उत्साहवर्धन कर रहे थे। इधर मैं अपने ही एक दो मित्रों को अपनी टूटी फूटी कविताएं सुना रहा था। कुल मिला कर चार से पाँच अन्य लोग ही एक बार में लाइव जुड़/कट हो रहे थे जिन्हें शायद कविता से कोई सरोकार नहीं था।वे केवल महाप्रभु की जय टाइप टिप्पणी करके ओझल हो जाते थे।मेरे लिए यह ऑनलाइन काव्यपाठ का सबसे घटिया अनुभव था।जिसे मैं इंटरनेट की कमी समझ कर स्वयं को सांत्वना दिये जा रहा था।

  एक दो दिन बात किसी संवासिनी कवियत्री ने बताया कि प्रभु आपसे खिन्न थे इसीलिये हिज़रत कर गये थे।

और तुम्हें मालूम भी है कि इस एक गलती के कारण तुम एक जाज्वल्यमान कवि बनने से वंचित रह गये हो।वरना प्रभु तो इतने कृपालु  हैं कि एक रात्रि  में वे किसी गूंगी को गायिका और अनपढ़ को कवि बना देते हैं। मेरी ख़ुद मिलते ही सप्ताह भर में किताब बनके विमोचित भी हो गयी थी।

खैर! मैं निराश नहीं हूँ। तुलसी बाबा के शब्दों में , "कबहुँ कि हौं यह रहनि रहौंगो।।''

#हिन्दीकेगिद्ध

यह #व्यंग्य नही है।

सुरेश साहनी कानपुर

9451545132

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