परायेपन का मंज़र कब मिला है।

तुम्हें अपनों से खंज़र कब मिला है।।


नदी ने कब कहा तिश्ना रहो तुम

तुम्हें प्यासा समुन्दर कब मिला है।।


तुम्हेँ किसने कहा तुम जान दे दो

मुझे जीने का मंतर कब मिला है।।


तुम्हें मैं  बेतहाशा प्यार करता

मगर इतना भी अवसर कब मिला है।।


विरासत में मिले कब फूल मुझको

तुम्हें काटों का बिस्तर कब मिला है।।


अदीबों से तुम्हें नफ़रत है माना

कहो मुझ सा सुखनवर कब मिला है।।


रक़ाबत क्यों करे हो साहनी से

मुक़ाबिल  तुमसे होकर कब मिला है।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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